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________________ १७ वॉ वर्ष शिक्षापाठ ३२ विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है राजगृही नगरीके राज्यासनपर जब श्रेणिक राजा विराजमान था तब उस नगरीमे एक चाडाल रहता था। एक बार उस चाडालकी स्त्रीको गर्भ रहा तब उसे आम खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई। उसने आम ला देनेके लिये चाडालसे कहा। चाडालने कहा, "यह आमका मौसम नही है, इसलिये मैं निरुपाय हूँ, नही तो मै आम चाहे जितने ऊँचे स्थानपर हो वहाँसे अपनी विद्याके वलसे लाकर तेरी इच्छा पूर्ण करूं।" चाडालोने कहा, "राजाकी महारानीके बागमे एक असमयमे आम देनेवाला आम्रवृक्ष है, उसपर अभी आम लचक रहे होगे, इसलिये वहाँ जाकर आम ले आओ।" अपनी स्त्रीकी इच्छा पूरी करनेके लिये चाडाल उस बागमे गया । गुप्तरूपसे आम्रवृक्षके पास जाकर मन्त्र पढकर उसे झुकाया और आम तोड़ लिये। दूसरे मत्रसे उसे जैसाका तैसा कर दिया। बादमे वह घर आया और अपनी स्त्रीकी इच्छापूर्तिके लिये निरन्तर वह चाडाल विद्याके बलसे वहाँसे आम लाने लगा। एक दिन फिरते-फिरते मालीकी दृष्टि आम्रवृक्षकी ओर गयी। आमोकी चोरी हुई देखकर उसने जाकर श्रेणिक राजाके सामने नम्रतापूर्वक कहा । श्रेणिककी आज्ञासे अभयकुमार नामके बुद्धिशाली मत्रीने युक्तिसे उस चाडालको खोज निकाला। चांडालको अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सब मनुष्य बागमे रहते हैं, फिर भी तू किस तरह चढकर आम ले गया कि यह बात किसीके भाँपनेमे भी न आई ? सो कह ।" चाडालने कहा, "आप मेरा अपराध क्षमा करे। मैं सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है, उसके प्रभावसे मै उन आमोको ले सका।' अभयकुमारने कहा, "मुझसे तो क्षमा नही दी जा सकती, परन्तु महाराजा श्रेणिकको तू यह विद्या दे तो उन्हे ऐसी विद्या लेनेकी अभिलाषा होनेसे तेरे उपकारके बदलेमे मैं अपराध क्षमा करा सकूँ।" चाडालने वैसा करना स्वीकार किया। फिर अभयकुमारने चाडालको जहाँ श्रेणिक राजा सिंहासनपर बैठा था वहाँ लाकर सामने खड़ा रखा, और सारी बात राजाको कह सुनायी। इस बातको राजाने स्वीकार किया। फिर चाडाल सामने खडे रहकर थरथराते पैरोंसे श्रेणिकको उस विद्याका बोध देने लगा, परतु वह बोध लगा नही। तुरन्त खडे होकर अभयकुमार बोले, "महाराज | आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी हो तो सामने आकर खडे रहे, और इसे सिंहासन दे।" राजाने विद्या लेनेके लिये वैसा किया तो तत्काल विद्या सिद्ध हो गयी। यह बात केवल बोध लेनेके लिये है। एक चाडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजाको विद्या सिद्ध न हुई, तो इसमेसे यह तत्त्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्याको सिद्ध करनेके लिये विनय करनी चाहिये । आत्मविद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुकी विनय करें तो कैसा मगलदायक हो । विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवानने उत्तराध्ययनमे विनयको धर्मका मूल कहकर वणित किया है। गुरुकी, मुनिकी, विद्वानकी, माता-पिताको, और अपनेसे बडोकी विनय करनी यह अपनी उत्तमताका कारण है। शिक्षापाठ ३३ सुदर्शन सेठ प्राचीन कालमे शुद्ध एकपत्नीव्रतको पालनेवाले असख्य पुरुष हो गये हैं, उनमेसे सकट सहन करके प्रसिद्ध होनेवाला सुदर्शन नामका एक सत्पुरुप भी है । वह धनाढ्य, सुन्दर मुखाकृतिवाला, कातिमान और युवावस्थामे था। जिस नगरमे वह रहता था, उस नगरके राजदरवारके सामनेसे किसी कार्य-प्रसगके कारण उसे निकलना पड़ा। वह जब वहाँसे निकला तब राजाकी अभया नामकी रानी अपने आवासके झरोखेमे बैठी थी। वहाँसे सुदर्शनकी ओर उसकी दृष्टि गयी। उसका उत्तम रूप और काया देखकर उसका मन ललचाया। एक अनुचरीको भेजकर कपटभावसे निर्मल कारण बताकर सुदर्शनको ऊपर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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