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________________ श्रीमद राजचन्द्र शरीरका मास देना पडे तो अनत भय होता है, क्योकि हमे अपनी देह प्रिय है। इसी प्रकार जिस जीवका वह मास होगा उसे भी अपना जीव प्यारा होगा। जैसे हम अमूल्य वस्तुएँ देकर भी अपनी देहको बचाते है वैसे ही उन विचारे पामर प्राणियोको भी होना चाहिये। हम समझवाले, बोलते-चालते प्राणी हैं, वे विचारे अवाचक और नासमझ हैं। उन्हे मौतका दुख दें यह कैसा पापका प्रबल कारण है ? हमे इस वचनको निरतर ध्यानमे रखना चाहिये कि सब प्राणियोको अपना जीव प्यारा है, और सब जीवोकी रक्षा करना इसके जैसा एक भी धर्म नही है।" अभयकुमारके भाषणसे श्रेणिक महाराजा संतुष्ट हुए, सभी सामत भी प्रतिबुद्ध हुए। उन्होने उस दिनसे मास न खानेकी प्रतिज्ञा को, क्योकि एक तो यह अभक्ष्य है, और किसी जीवको मारे विना मिलता नहीं है, यह बड़ा अधर्म है। इसलिये अभय मत्रीका कथन सुनकर उन्होने अभयदानमे ध्यान दिया, जो आत्माके परम सुखका कारण है । शिक्षापाठ ३१ : प्रत्याख्यान 'पच्चक्खान' शब्द वारंवार तुम्हारे सुननेमे आया है। इसका मूल शब्द 'प्रत्याख्यान' है, और यह अमुक वस्तुकी ओर चित्त न जाने देनेका जो नियम करना उसके लिये प्रयुक्त होता है। प्रत्याख्यान करने का हेतु अति उत्तम तथा सूक्ष्म है। प्रत्याख्यान न करनेसे चाहे किसी वस्तूको न खाओ अथवा उसका भोग न करो तो भी उससे सवर नही होता, कारण कि तत्त्वरूपसे इच्छाका निरोध नही किया है। रातमे हम भोजन न करते हो, परन्तु उसका यदि प्रत्याख्यानरूपसे नियम न किया हो तो वह फल नही देता, क्योकि अपनी इच्छाके द्वार खुले रहते हैं। जैसे घरका द्वार खुला हो और श्वान आदि प्राणी या मनुष्य भीतर चले आते है वैसे ही इच्छाके द्वार खुले हो तो उनमे कर्म प्रवेश करते हैं। अर्थात् उस ओर अपने विचार यथेच्छरूपसे जाते हैं, यह कर्मवधनका कारण है। और यदि प्रत्याख्यान हो तो फिर उस ओर दृष्टि करनेकी इच्छा नहीं होती। जैसे हम जानते है कि पीठका मध्य भाग हमसे देखा नही जा सकता, इसलिये उस ओर हम दृष्टि भी नही करते, वैसे ही प्रत्याख्यान करनेसे अमुक वस्तु खायी या भोगी नही जा सकती, इसलिये उस ओर अपना ध्यान स्वाभाविकरूपसे नही जाता। यह कर्मोको रोकनेके लिये बीचमे दुर्गरूप हो जाता है। प्रत्याख्यान करनेके बाद विस्मृति आदिके कारण कोई दोष लग जाये तो उसके निवारणके लिये महात्माओने प्रायश्चित्त भी बताये हैं। प्रत्याख्यानसे एक दूसरा भी बड़ा लाभ है, वह यह कि अमुक वस्तुओमे ही हमारा ध्यान रहता है, बाकी सब वस्तुओका त्याग हो जाता है । जिस-जिस वस्तुका त्याग किया है, उस-उस वस्तुक सबधम फिर विशेष विचार, उसका ग्रहण करना, रखना अथवा ऐसी कोई उपाधि नही रहती । इससे मन बहुत विशालताको पाकर नियमरूपी सड़कपर चला जाता है। अश्व यदि लगाममे आ जाता है तो फिर चाहे जैसा प्रवल होनेपर भी उसे इच्छित रास्तेसे ले जाया जाता है, वैसे ही मन इस नियमरूपी लगाममे आनेके वाद चाहे जैसी शुभ राहमे ले जाया जाता है. और उसमे वारंवार पर्यटन करानेसे वह एकाग्र, विचारशील और विवेकी हो जाता है । मनका आनद शरीरको भी नीरोग बनाता है। और अभक्ष्य, अनतकाय, परस्त्री आदिका नियम करनेसे भी शरीर नीरोग रह सकता है। मादक पदार्थ मनको उलटे रास्तेपर ले जाते हैं, परतु प्रत्याख्यानसे मन वहाँ जाता हुआ रुकता है, इससे वह विमल होता है। प्रत्याख्यान यह कैसी उत्तम नियम पालनेकी प्रतिज्ञा है, यह बात इस परसे तुम समझे होगे। विशेष सद्गुरुके मुखसे और शास्त्रावलोकनसे समझनेका मैं बोध करता हूँ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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