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________________ श्रीमद् राजचन्द्र बुलाया | अनेक प्रकारकी वातचीत करनेके बाद अभयाने सुदर्शनको भोग भोगनेका आमंत्रण दिया । सुदर्शनने बहुत-मा उपदेश दिया तो भी उसका मन शात नही हुआ । आखिर तग आकर सुदर्शनने युक्तिसे कहा, "बहिन । में पुरुषत्वहीन हूं ।" तो भी रानोने अनेक प्रकारके हावभाव किये। परंतु उन सारी कामचेष्टाजी सुदर्शन विचलित नही हुआ, इमसे तग आकर रानीने उसे जाने दिया । एक बार उम नगरमे उत्सव था, इसलिये नगर के बाहर नगरजन आनदसे इधर-उधर घूमते थे । धूमधाम मची हुई थी । सुदर्शन सेठके छ' देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे । अभया रानी कपिला नामकी दासीके साथ ठाटवाटसे वहाँ आयी थी । सुदर्शनके देवपुतले जैसे छ' पुत्र उसके देखनेमे आये । उसने कपिलासे पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसका है ?" कपिलाने सुदर्शन सेठका नाम लिया । यह नाम सुनते ही रानीकी छाती मानो कटार भोकी गयो, उसे घातक चोट लगी । सारी धूमधाम बीत जानेके बाद मायाकथन गढ़कर अभया और उसकी दासीने मिलकर राजा से कहा - " आप मानते होगे कि मेरे राज्यमे न्याय जोर नोतिका प्रवर्तन है, दुर्जनोसे मेरी प्रजा दुखीं नही है, परतु यह सब मिथ्या है । अत पुरमे भी दुर्जन प्रवेश करे यहाँ तक अभी अधेर हे ! तो फिर दूसरे स्थानोके लिये तो पूछना हो क्या ? आपके नगरके सुदर्शन नामके सेठने मुझे भोगका आमंत्रण दिया, न कहने याग्य कथन मुझे सुनने पड़े; परंतु मैने उसका तिरस्कार किया । इससे विशेष अधेर कौनसा कहा जाय ।" राजा मूलत. कानके कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमे फिर स्त्रीके मायावी मधुर वचन क्या असर न करें ? तत्ते तेलमे ठडे जल जैसे वचनोसे राजा क्रोधायमान हुआ । उसने सुदर्शनको शूली पर चढा देनेकी तत्काल आज्ञा कर दी, और तदनुसार सब कुछ हो भी गया । मात्र सुदर्शनके शूली पर चढनेको देर थी । और चाहे जो हो परन्तु "सृष्टिके' दिव्य भण्डारमे उजाला है । सत्यका प्रभाव ढका नही रहता । सुदर्शनको शूली पर बिठाया कि शूली मिट कर जगमगाता हुआ सोनेका सिंहासन हो गयी, देव-दुदुभिका नाद हुआ, सर्वत्र आनन्द छा गया । सुदर्शनका सत्य शील विश्वमण्डलमे झलक उठा । सत्य शोलकी सदा जय है । गोल और सुदर्शनकी उत्तम दृढता ये दोनो आत्माको पवित्र श्रेणिपर चढ़ाते हैं ८८ शिक्षापाठ ३४ : ब्रह्मचर्य सम्बन्धी सुभाषित ( दोहे ) * नोरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान । गणे काष्ठनी पुतळी, ते भगवान समान ॥१॥ आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप । ए त्यागी, त्याग्युं वधुं केवळ शोकस्वरूप ॥२॥ एक विषयने जीततां, जोत्यो सौ संसार 1 , नृपति जीतता जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार ॥३॥ ? द्वि० आ० पाठा० ' जगठके' ★ भावार्थ-नवयौवनाको देखकर जिसके मनमें विषय-विकारका लेश भी उदय नही होता और जो उसे काकी पुतलीमा है, यह भगवान के समान है || २ || सारे नमारकी नायकरूप रमणी सर्वया दुस स्वरूप है, जिसने इसका त्याग कर दिया उसने सन कुछ लोग दिया ॥२॥ जैन गुरु नृपतिको जीवनसे उम्रना सैन्य, नगर और अधिकार जीते जाते हैं, वैसे एक विषयको जीतने से सारा मवार नाता जाता है ॥३॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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