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________________ ५६ श्रीमद राजचन्द्र गुडरीकिणी महानगरीको अशोकवाटिकामे आकर उसने ओघा, मुखपटी वृक्षपर लटका दिये । वह निरन्तर यह परिचिंतन करने लगा कि पुडरीक मुझे राज देगा या नही ? वनरक्षकने कुडरीकको पहचान लिया । उसने जाकर पुडरीकको विदित किया कि आकुलव्याकुल होता हुआ आपका भाई अशोकबागमे ठहरा हुआ है । पुडरोकने आकर कुडरीक के मनोभाव देखे और उसे चारित्रसे डगमगाते हुए देखकर कुछ उपदेश देनेके बाद राज सांपकर घर आया । कुडरीककी आज्ञाको सामत या मत्री कोई भी नही मानते थे, बल्कि वह हजार वर्ष तक प्रव्रज्या पालकर पतित हुआ, इसलिये उसे विक्कारते थे । कुडरीकने राज्यमे आनेके वाद अति आहार किया । इ कारण वह रात्रि अति पीडित हुआ और वमन हुआ । अप्रीतिके कारण उसके पास कोई आया नही, इससे उसके मनमे प्रचण्ड क्रोध आया। उसने निश्चय किया कि इस पीडासे यदि मुझे शाति मिले तो फिर प्रभातमे इन सबको मे देख लूंगा । ऐसे महादुर्ध्यानसे मर कर वह सातवी नरकमे अपयठाण पाथडमे तेतीस पकी आयु के साथ अनन्त दुखमे जाकर उत्पन्न हुआ । कैसा विपरीत आस्रवद्वार || इति सप्तम चित्र आस्रवभावना समाप्त हुई । अष्टम चित्र संवरभावना संवरभावना - उपर्युक्त आस्रवद्वार और पापप्रणालको सर्वथा रोकना ( आते हुए कर्म - समूहको रोकना) यह सवरभाव है । दृष्टांत - (२) (कुडरीकका अनुसवध) कुंडरीकके मुखपटी इत्यादि उपकरणोको ग्रहण करके पुडरीकने निश्चय किया कि मुझे पहले महर्षि गुरुके पास जाना चाहिये और उसके बाद ही अन्न-जल ग्रहण करना चाहिये | नगे पैरोसे चलने के कारण पैरोमे ककर एव काँटे चुभनेसे लहूको धाराएँ बह निकली, तो भी वह उत्तम ध्यानमे समताभावसे रहा । इस कारण यह महानुभाव पुंडरीक मृत्यु पाकर समर्थ सर्वार्थसिद्ध विमानमे तैंतीस सागरोपमको उत्कृष्ट आयुसहित देव हुआ । आस्रवसे कुडरोककी कैमी दुखदशा । और सवरसे पुडरीककी कैसी सुखदशा 11 दृष्टात - ( २ ) श्री वज्रस्वामी कचनकामिनी के द्रव्यभावसे सर्वथा परित्यागी थे । एक श्रीमतकी रुक्मिणी नामकी मनोहारिणी पुत्री वज्रस्वामीके उत्तम उपदेशको सुनकर उनपर मोहित हो गयी । घर आकर उसने मातापितासे कहा, "यदि मै इस देहसे पति करूँ, तो मात्र वज्रस्वामीको ही करूँ, अन्यके साथ सलग्न न होनेकी मेरी प्रतिज्ञा हे ।" रुक्मिणीको उसके मातापिताने बहुत ही कहा, "पगली | विचार तो मही कि क्या मुनिराज भी कभी विवाह करते है ? उन्होने तो आस्रवद्वारकी सत्य प्रतिज्ञा ग्रहण की है ।" तो भी रुक्मिणीने कहना नही माना । निरुपाय होकर धनावा सेठने कुछ द्रव्य और सुरूपा रुक्मिणीको साथ लिया, और जहाँ वज्रस्वामी विराजते थे वहाँ आकर कहा, "यह लक्ष्मी है, इसका आप यथारुचि उपयोग करे, और वैभवविलासमे लगायें, और इस मेरी महासुकोमला रुक्मिणी नामकी पुत्रीसे पाणिग्रहण करे ।" वो कहकर वह अपने घर चला आया । यौवनमागरमे तैरती हुई रूपराशि रुक्मिणीने वज्रस्वामीको अनेक प्रकारसे भोगसंबंधी उपदेश किया, भोग के मुसीका अनेक प्रकारने वर्णन किया, मनमोहक हावभाव तथा अनेक प्रकार के अन्य चलित करने के उपाय नये, परंतु वे मवथा वृथा गये, महासुदरी रुक्मिणी अपने मोहकटाक्षमे निष्फल हुई । उग्रचरित्र विजयमान वज्रयानी मेरुको नाति अचल और अडोल रहे । रुक्मिणोके मन, वचन और तनके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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