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________________ १७ वाँ वर्ष ५५ मनदड, वचनदड और तनदंडको दूर किया। चार कषायसे विमुक्त हुए । मायाशल्य, निदानशल्य तथा मिथ्यात्वशल्य इस त्रिशल्यसे विरागी हुए । सप्त महाभयसे वे अभय हुए । हास्य और शोकसे निवृत्त हुए । निदानरहित हुए । रागद्वेषरूपी बन्धनसे छूट गये । वाछारहित हुए। सभी प्रकारके विलासोसे रहित हुए । कोई तलवारसे काटे और कोई चन्दनका विलेपन करे, उसपर समभावी हुए । उन्होने पाप आनेके सभी द्वार रोक दिये । शुद्ध अन्त करणसहित धर्मंध्यानादिके व्यापार मे वे प्रशस्त हुए । जिनेन्द्रके शासनतत्त्वमे परायण हुए । ज्ञानसे, आत्मचारित्रसे, सम्यक्त्वसे, तपसे, प्रत्येक महाव्रतकी पाँच भावनाओसे अर्थात् पाँच महाव्रतोकी पच्चीस भावनाओंसे और निर्मलतासे वे अनुपम विभूषित हुए । सम्यक् प्रकारसे बहुत वर्ष तक आत्मचरित्रका परिसेवन करके एक मासका अनशन करके उन महाज्ञानी युवराज मृगापुत्रने प्रधान मोक्षगतिमे गमन किया । प्रमाणशिक्षा — तत्त्वज्ञानियो द्वारा सप्रमाण सिद्ध की हुई द्वादश भावनाओमे से ससार भावनाको दृढ करनेके लिये मृगापुत्रके चरित्रका यहाँ वर्णन किया है । ससाराटवीमे परिभ्रमण करते हुए अनन्त दुःख है, यह विवेकसिद्ध है, और इसमे भी, निमेषमात्र भी जिसमे सुख नही है ऐसी नरकाधोगतिके अनन्त दु खोका वर्णन युवज्ञानी योगीद्र मृगापुत्रने अपने मातापिता के समक्ष किया है, वह केवल ससारसे मुक्त होनेका विरागी उपदेश प्रदर्शित करता है। आत्मचारित्रको धारण करनेमे तपपरिषहादिके बहिर्दुःखको दुख माना है, और महाधोगति के परिभ्रमणरूप अनन्त दुखको बहिर्भावमोहिनीसे सुख माना है, यह देखो, कैसी भ्रमविचित्रता है ? आत्मचारित्रका दुःख दुख नही परन्तु परम सुख है, और परिणाममे अनन्त सुखतरगकी प्राप्तिका कारण है, और भोगविलासादिका सुख जो क्षणिक एव बहिर्दृष्ट सुख है वह केवल दुख ही है, और परिणाममे अनन्त दुःखका कारण है, इसे सप्रमाण सिद्ध करनेके लिये महाज्ञानी मृगापुत्रका वैराग्य यहाँ प्रदर्शित किया है । इन महाप्रभावक, महायशस्वी मृगापुत्रकी भाँति जो तपादिक और आत्मचारित्रादिक शुद्धाचरण करे, वह उत्तम साधु त्रिलोकमे प्रसिद्ध और प्रधान परमसिद्धिदायक सिद्धगतिको पाये । ससारममत्वको दुखवृद्धिरूप मानकर तत्त्वज्ञानी इन मृगापुत्रकी भाँति परम सुख और परमानन्दके लिये ज्ञानदर्शनचारित्ररूप दिव्य चिन्तामणिकी आराधना करते हैं । महर्षि मृगापुत्रका सर्वोत्तम चरित्र (ससारभावनारूपसे) ससार परिभ्रमणकी निवृत्तिका और उसके साथ अनेक प्रकारकी निवृत्तिका उपदेश देता है । इस परसे अतर्दर्शनका नाम निवृत्तिबोध रखकर आत्मचारित्रकी उत्तमताका वर्णन करते हुए मृगापुत्रका यह चरित्र यहाँ पूर्ण होता है । तत्त्वज्ञानी ससारपरिभ्रमणनिवृत्ति और सावद्यउपकरणनिवृत्तिका पवित्र विचार निरतर करते हैं । इति अन्तर्दर्शनके ससारभावनारूप छठे चित्रमें मृगापुत्रचरित्र समाप्त हुआ । सप्तम चित्र आस्रवभावना द्वादश अविरति षोडश कषाय, नव नोकषाय, पच मिथ्यात्व और पंचदश योग यह सब मिलकर सत्तावन आस्रव-द्वार अर्थात् पापके प्रवेश करनेके प्रणाल है । दृष्टान्त - महाविदेहमे विशाल पुडरीकिणी नगरीके राज्यसिहासनपर पुडरीक और कुंडरीक नामके दो भाई आरूढ थे । एक बार वहाँ महातत्त्वज्ञानी मुनिराज विहार करते हुए आये । मुनिके वैराग्य वचनामृत कुडरीक दीक्षानुरक्त हुआ और घर आनेके बाद पुडरीकको राज्य सौंपकर चारित्र अगीकार किया । सरस-नीरस आहार करनेसे थोडे समयमे वह रोगग्रस्त हुआ, जिससे वह चारित्रपरिणामसे भ्रष्ट हो गया ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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