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________________ ५४ श्रीमद राजचन्द्र तिरछा छेदा गया था । चररर शब्द करती हुई मेरी त्वचा उतारी गयी थी । इस प्रकार मैंने अनत दुःख पाया था। परवशतासे मृगकी भाँति अनत वार पाशमे पकडा गया था । परमाधामियोने मुझे मगरमच्छ के रूपमे जाल डालकर अनत वार दुख दिया था । वाजके रूपमे पक्षीकी भाँति जालमे बाँध कर मुझे अनन्त वार मारा था । फरसा इत्यादि शस्त्रोसे मुझे अनन्त बार वृक्षकी तरह काटकर मेरे सूक्ष्म टुकडे किये गये थे । जैसे लुहार घनसे लोहेको पीटता है वैसे ही मुझे पूर्व कालमे परमाधामियोने अनन्त बार पीटा था । तॉवे, लोहे और सीसेको अग्निसे गला कर उनका उबलता हुआ रस मुझे अनन्त बार पिलाया था । अति रौद्रतासे वे परमाधामी मुझे यो कहते थे कि पूर्व भवमे तुझे माँस प्रिय था, अव ले यह मॉस । इस तरह मैने अपने ही शरीर के खण्ड-खण्ड टुकडे अनन्त वार निगले थे । मद्यकी प्रियताके कारण भी मुझे इससे कुछ कम दुख उठाना नही पडा। इस प्रकार मैंने महाभयसे, महात्राससे और महादु खसे कंपायमान काया द्वारा अनन्त वेदनाएँ भोगी थी । जो वेदनाएँ सहन करनेमे अति तीव्र, रौद्र और उत्कृष्ट कालस्थितिवाली हैं, और जो सुननेमे भी अति भयकर है, वे मैंने नरकमे अनन्त बार भोगी थी । जैसी वेदना मनुष्यलोकमे है वैसी दोखती परन्तु उससे अनन्त गुनी अधिक असातावेदना नरकमे थी । सभी भवोमे असातावेदना मैंने भोगी है । निमेषमात्र भी वहाँ साता नही है ।" I इस प्रकार मृगापुत्रने वैराग्य भावसे ससार परिभ्रमणके दुख कह सुनाये। इसके उत्तरमे उसके माता पिता इस प्रकार बोले -" हे पुत्र । यदि तेरी इच्छा दीक्षा लेनेकी है तो दीक्षा ग्रहण कर, परन्तु चारित्रमे रोगोत्पत्तिके समय चिकित्सा कौन करेगा ? दुख - निवृत्ति कौन करेगा ? इसके विना अति दुष्कर है ।" मृगापुत्रने कहा - "यह ठोक है, परन्तु आप विचार कीजिये कि अटवीमे मृग तथा पक्षी अकेले होते है; उन्हे रोग उत्पन्न होता है तब उनकी चिकित्सा कौन करता है ? जैसे वनमे मृग विहार करता है वैसे ही मैं चारित्रवनमे विहार करूँगा, और सत्रह प्रकारके शुद्ध सयमका अनुरागी बनूँगा, वारह प्रकारके तपका आचरण करूँगा, तथा मृगचर्यासे विचरूंगा। जब मृगको वनमे रोगका उपद्रव होता है, तब उसकी चिकित्सा कौन करता है ?" ऐसा कहकर वे पुन बोले, "कौन उस मृगको औषध देता है ? कौन उस मृग को आनन्द, शाति और सुख पूछता है ? कौन उस मृगको आहार जल लाकर देता है ? जैसे वह मृग उपद्रवमुक्त होनेके बाद गहन वनमे जहाँ सरोवर होता है वहाँ जाता है, तृण-पानी आदिका सेवन करके फिर जैसे वह मृग विचरता है वैसे ही मैं विचरूँगा । साराश यह कि मैं तद्रूप मृगचर्याका आचरण करूँगा । इस तरह में भी मृगकी भाँति सयमवान बनूँगा । अनेक स्थलोमे विचरता हुआ यति मृगकी भाँति अप्रतिबद्ध रहे। मृगकी तरह विचरण करके, मृगचर्याका सेवन करके और सावद्यको दूर करके यति विचरे । जैसे मृग तृण, जल आदिकी गोचरी करता है वैसे ही यति गोचरी करके संयमभारका निर्वाह करे । दुराहारके लिये गृहस्थकी अवहेलना न करे, निंदा न करे, ऐसे सयमका मै आचरण करूँगा ।" “एवं पुत्ता जहासुख —– हे पुत्र । जैसे तुम्हे सुख हो वैसे करो ।" इस प्रकार मातापिताने अनुज्ञा दी । अनुज्ञा मिलनेके बाद ममत्वभावका छेदन करके जैसे महा नाग कचुकका त्याग करके चला जाता है वैसे ही वे मृगापुत्र ससारका त्याग कर सयम धर्ममे सावधान हुए । कचन, कामिनी, मित्र, पुत्र, जाति और सगे सबधियोके परित्यागी हुए। जैसे वस्त्रको झटक कर धूलको झाड़ डालते हैं वैसे ही वे सब प्रपचका त्याग कर दीक्षा लेनेके लिये निकल पडे । वे पवित्र पाँच महाव्रतसे युक्त हुए, पच समितिसे सुशोभित हुए, त्रिगुप्तिसे अनुगुप्त हुए, वाह्याभ्यतर द्वादश तपसे सयुक्त हुए, ममत्वरहित हुए निरहकारी हुए । स्त्री आदिके सगसे रहित हुए, और सभी प्राणियोमे उनका समभाव हुआ । आहार जल प्राप्त हो या न हो, सुख प्राप्त हो या दुख, जीवन हो या मरण, कोई स्तुति करे या कोई निन्दा करे, कोई मान दे या कोई अपमान करे, उन सब पर वे समभावी हुए । ऋद्धि, रस और सुख इस त्रिगारवके अहपदसे वे विरक्त हुए ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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