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________________ ४६ श्रीमद राजचन्द्र मेरी नही, यह मोह मात्र अज्ञानताका है। सिद्धगति साधनेके लिये हे जीव | अन्यत्वका बोध देनेवाली अन्यत्वभावनाका विचार कर | विचार कर । मिथ्या ममत्वको भ्राति दूर करनेके लिये और वैराग्यकी वृद्धिके लिये उत्तम भावसे मनन करने योग्य राजराजेश्वर भरतका चरित्र यहाँ पर उद्धृत करते हैं . ___ दृष्टांत-जिसकी अश्वशालामे रमणीय, चतुर और अनेक प्रकारके तेज अश्वोका समूह शोभा देता था, जिसकी गजशालामे अनेक जातिके मदोन्मत्त हस्ती झूम रहे थे, जिसके अत पुरमे नवयौवना, सुकुमारी और मुग्धा सहस्रो स्त्रियाँ विराजित हो रही थी, जिसकी निधिमे समुद्रकी पुत्री लक्ष्मी, जिसे विद्वान चचलाकी उपमासे जानते है, स्थिर हो गयी थी, जिसकी आज्ञाको देवदेवागनाएँ अधीन होकर मुकुटपर चढा रहे थे, जिसके प्राशनके लिये नाना प्रकारके पड्रस भोजन पल-पलमे निर्मित होते थे, जिसके कोमल कर्णके विलासके लिये बारीक एव मधुर स्वरसे गायन करनेवाली वारागनाएँ तत्पर थी, जिसके निरीक्षण करनेके लिये अनेक प्रकारके नाटक चेटक थे; जिसको यश कीर्ति वायुरूपसे फैलकर आकाशको तरह व्याप्त थी, जिसके शत्रुओको सुखसे शयन करनेका वक्त नही आया था, अथवा जिसके वैरियोकी वनिताओके नयनोसे सदैव ऑसू टपकते थे, जिससे कोई शत्रुता दिखानेके लिये तो समर्थन था, परन्तु जिसकी ओर निर्दोषतासे उँगली उठानेमे भी कोई समर्थ न था, जिसके समक्ष अनेक मन्त्रियो का समुदाय उसकी कृपाकी याचना करता था, जिसके रूप, काति और सौदर्य मनोहारी थे, जिसके अंगमे महान वल, वीर्य, शक्ति और उन पराक्रम उछल रहे थे, जिसके क्रोडा करनेके लिये महासुगन्धिमय बागबगीचे और वनोपवन थे, जिसके यहाँ प्रधान कुलदीपक पुत्रोका समुदाय था, जिसकी सेवामे लाखो अनुचर सज्ज होकर खडे रहते थे, वह पुरुष जहाँ-जहाँ जाता था वहाँ-वहाँ खमा-खमाके उद्गारोंसे, कचनके फूलो से और मोतियोंके थालोंसे उसका स्वागत होता था; जिसके कुकुमवर्णी पादपकजका स्पर्श करनेके लिये इन्द्र जैसे भी तरसते रहते थे, जिसकी आयुधशालामे महायशस्वी दिव्य चक्रकी उत्पत्ति हुई थी, जिसके यहाँ साम्राज्यका अखड दीपक प्रकाशमान था, जिसके सिरपर महान छ खडकी प्रभुताका तेजस्वी और . प्रकाशमान मुकुट सुशोभित था। कहनेका आशय यह है कि जिसके दलकी, जिसके नगर-पुरपट्टनकी, जिसके वैभवकी और जिसके विलासकी ससारकी दृष्टिसे किसी भी प्रकारकी न्यूनता न थी, ऐसा वह श्रीमान् राजराजेश्वर भरत अपने सुन्दर आदर्शभुवनमे वस्त्राभूषणोसे विभूषित होकर मनोहर सिंहासनपर वैठा था। चारो ओरके द्वार खुले थे, नाना प्रकारके धूपोका धूम्र सूक्ष्म रीतिसे फैल रहा था, नाना प्रकारक सुगन्धी पदार्थ खूब महक रहे थे, नाना प्रकारके सुस्वरयुक्त वाजे यात्रिक कलासे बज रहे थे, शीतल, मंद और सुगधी यो त्रिविध वायुकी लहरें उठ रही थी, आभूपण आदि पदार्थों का निरीक्षण करते-करते वह श्रीमान् राजराजेश्वर भरत उस भुवनमे अपूर्वताको प्राप्त हुआ। उसके हाथकी एक उँगलीमेसे अगूठी निकल पडी। भरतका ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ और उँगली सर्वथा शोभाहीन दिखायी दी । नौ उँगलियाँ अगूठियोसे जो मनोहरता रखती थी उस मनोहरतासे रहित इस उँगलीको देखकर भरतेश्वरको अद्भुत मूलभूत विचारको प्रेरणा हुई। किस कारणसे यह उँगली ऐसी लगती है ? यह विचार करनेपर उसे मालूम हुआ कि इसका कारण अगुठीका निकल जाना है। इस वातको विशेष प्रमाणित करनेके लिये उसने दूसरी उँगलीको अगूठी खोच निकाली । ज्यो ही दूसरी उँगलीमेसे अगूठी निकली त्यो ही वह उँगली भी शोभाहोन दिखायी दी, फिर इस बातको सिद्ध करनेके लिये उसने तीसरी उँगलीमेसे भो अंगूठी सरका ली, इससे यह बात और अधिक प्रमाणित हुई। फिर चौथों उँगलीमेसे अगूठो निकाल लो, जिससे यह भी वैसी ही दिखायी दी। इस प्रकार अनुक्रमसे दसो उँगलियाँ खाली कर डाली, खाली हो जानेसे सभीका देखाव शोभाहीन मालूम हुआ। शोभाहीन दीखनेसे राजराजेश्वर अन्यत्वभावनासे गद्गद होकर इस प्रकार बोला
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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