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________________ १७ वॉ वर्ष, 'अहोहो | कैसी विचित्रता है कि भूमिमे उत्पन्न हुई वस्तुको पीटकर कुशलतासे घडनेसे मुद्रिका बनी; इस मुद्रिकासे मेरी उँगली सुन्दर दिखायी दी, इस उँगलीमेसे मुद्रिका निकल पड़नेसे विपरीत दृश्य नजर आया, विपरीत दृश्यसे उंगलीको शोभाहीनता और बेहूदापन खेदका कारण हुआ। शोभाहीन लगने का कारण मात्र अँगूठी नही, यही ठहरा न ? यदि अंगूठी होती तब तो ऐसी अशोभा मैं न देखता। इस मुद्रिकासे मेरी यह उँगली शोभाको प्राप्त हुई, इस उँगलीसे यह हाथ शोभा पाता है, और इस हाथसे यह शरीर शोभा पाता है। तब इसमे मैं किसकी शोभा मानूं ? अति विस्मयता | मेरी इस मानी जानेवाली मनोहर कातिको विशेष दीप्त करनेवाले ये मणिमाणिक्यादिके अलकार और रग-बिरगे वस्त्र ठहरे। यह काति मेरी त्वचाकी शोभा ठहरी । यह त्ववा शरीरको गुप्तताको ढंककर उसे सुन्दर दिखाती है। अहोहो । यह महाविपरीतता है । जिस शरीरको मै अपना मानता है, वह शरीर मात्र त्वचासे, वह त्वचा कातिसे और वह काति वस्त्रालकारसे शोभा पाती है। तो फिर क्या मेरे शरीरकी तो कुछ शोभा ही नही न ? रुधिर, मास और हड्डियोका ही केवल यह ढाँचा है क्या ? और इस ढाँचेको मैं सर्वथा अपना मानता हूँ। कैसी भूल । कैसी भ्राति । और कैमी विचित्रता है । मैं केवल पर पुद्गलकी शोभासे शोभित होता हूँ। किसीसे रमणीयता धारण करनेवाले इस शरीरको मैं अपना कैसे माने? और कदाचित् ऐसा मानकर मै इसमे ममत्वभाव रखू तो वह भी केवल दु खप्रद और वृथा है। इस मेरो आत्माका इस शरोरसे एक समय वियोग होनेवाला है | आत्मा जब दूसरी देहको धारण करनेके लिये जायेगा तब इस देहके यही रहनेमे कोई शंका नही है। यह काया मेरी न हुई और न होगी तो फिर मैं इसे अपनी मानता हूँ या मानूं, यह केवल मूर्खता है। जिसका एक समय वियोग होनेवाला है, और जो केवल अन्यत्वभाव रखती है उसमे ममत्वभाव क्या रखना ? यह जब मेरी नही होतो तब मुझे इसका होना क्या उचित है ? नही, नहीं, यह जब मेरी नही तब मै इसका नही, ऐसा विचार करू, दृढ करूं, और प्रर्वतन करूँ, यह विवेकबुद्धिका तात्पर्य है । यह सारी सृष्टि अनत वस्तुओसे और पदार्थोंसे भरी हुई है, उन सब पदार्थोकी अपेक्षा जिसके जितनी किसी भी वस्तुपर मेरी प्रीति नही है, वह वस्तु भी मेरी न हुई, तो फिर दूसरी कौनसी वस्तु मेरी होगी ? अहो । मैं बहुत भूल गया । मिथ्या मोहमे फंस गया। वे नवयौवनाएं, वे माने हुए कुलदीपक पुत्र, वह अतुल लक्ष्मी, वह छ खडका महान राज्य, ये मेरे नही हैं । इनमेसे लेशमात्र भी मेरा नहीं है। इनमें मेरा किंचित् भाग नही है। जिस कायासे मै इन सब वस्तुओका उपभोग करता हूँ, वह भोग्य वस्तु जब मेरी न हुई तब अपनी मानो हुई अन्य वस्तुएँ-स्नेही, कुटुम्बी इत्यादि क्या मेरी होनेवाली थी? नही, कुछ भी नही । यह ममत्वभाव मुझे नही चाहिये । ये पुत्र, ये मित्र, ये कलत्र, यह वैभव और यह लक्ष्मी, इन्हे मुझे अपना मानना ही नही है । मैं इनका नही और ये मेरे नही | पुण्यादिको साधकर मैंने जो जो वस्तुएँ प्राप्त की वे वस्तुएँ मेरी न हुई, इसके जैसा संसारमे क्या खेदमय है ? मेरे उन पुण्यत्वका परिणाम यही न? अतमे इन सबका वियोग ही न? पुण्यत्वका यह फल प्राप्त कर इसकी वृद्धिके लिये मैने जो जो पाप किये वह सब मेरे आत्माको हो भोगना है न ? और वह अकेले ही न ? इसमे कोई सहभोक्ता नहीं हो न ? नहीं नहीं । इन अन्यत्वभाववालोके लिये ममत्वभाव दिखाकर आत्माका अहितैषी होकर मैं इसे रौद्र नरकका भोक्ता बनाऊँ इसके जैसा कौनसा अज्ञान है ? ऐसी कौनसी भ्राति है ? ऐसा कौनसा अविवेक है ? सठ शलाकापुरुषोमे मै एक गिना गया, फिर भी मै ऐसे कृत्यको दूर न कर सकूँ और प्राप्त प्रभुताको खो बैठू', यह सर्वथा अयुक्त है। इन पुत्रोका, इन प्रमदाओका, इस राजवैभवका और इन वाहन आदिके सुखका मुझे कुछ भी अनुराग नहीं है । ममत्व नहीं है ।" राजराजेश्वर भरतके अन्त करणमे वैराग्यका ऐसा प्रकाश पड़ा कि तिमिरपट दूर हो गया । शुक्लध्यान प्राप्त हुआ। अशेषकर्म जलकर भस्मीभूत हो गये ।। महादिव्य और सहस्र किरणसे भी अनुपम कातिमान केवलज्ञान प्रकट हुआ। उसी समय इन्होने पचमुष्टि केशलुचन किया। शासनदेवीने इन्हे सत
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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