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________________ १७ वाँ वर्ष ४५ ह दूसरा व्याधितुल्य कोलाहल होता है सो असह्य है ।" सभी रानियोने मगलके तौर पर एक एक ककण खकर ककण-समुदायका त्याग कर दिया, जिससे वह खलभलाहट शात हो गयी । नमिराजने रानियोंसे हा, "तुमने क्या चदन घिसना बन्द कर दिया ?" रानियोने बताया, "नही, मात्र कोलाहल शात करनेके ये एक एक ककण रखकर, दूसरे ककणोका परित्याग करके हम चदन घिसती हैं । ककणके समूहको ब हमने हाथमे नही रखा है, इससे खलभलाहट नही होती ।" रानियोके इतने वचन सुनते ही नमिराज रोम-रोममे एकत्व स्फुरित हुआ, व्याप्त हो गया और ममत्व दूर हो गया - "सचमुच ' बहुतोके मिलनेसे हुत उपाधि होती है । अब देख, इस एक ककणसे लेशमात्र भी खलभलाहट नही होती, ककणके समूहके कारण सिर चकरा देनेवाली खलभलाहट होती थी । अहो चेतन । तू मान कि एकत्वमे ही तेरी सिद्धि है । अधिक मिलने से अधिक उपाधि है । ससारमे अनन्त आत्माओके सम्बन्धसे तुझे उपाधि भोगनेकी क्या आवश्यकता है ? उसका त्याग कर और एकत्वमे प्रवेश कर। देख | यह एक ककण अब खलभलाहटके बना कैसी उत्तम शातिमे रम रहा है ? जब अनेक थे तब यह कैसी अशाति भोगता था ? इसी तरह [ भी ककणरूप है । इस ककणकी भाँति तू जब तक स्नेही कुटुम्बीरूपी ककणसमुदाय पडा रहेगा तब क भवरूपी खलभलाहटका सेवन करना पडेगा, और यदि इस कंकणकी वर्तमान स्थितिकी भाँति एकत्वका आराधन करेगा तो सिद्धगतिरूपी महा पवित्र शांति प्राप्त करेगा ।" इस तरह वैराग्यमे उत्तरोत्तर प्रवेश करते हुए उन नमिराजको पूर्वजातिकी स्मृति हो आयी । प्रव्रज्या धारण करनेका निश्चय करके वे शयन कर गये । प्रभातमे मागल्यरूप बाजोकी ध्वनि गूँज उठी, दाहज्वरसे मुक्त हुए । एकत्वका परिपूर्ण सेवन करनेवाले उन श्रीमान् नमिराज ऋषिको अभिवन्दन हो । ( शार्दूलविक्रीडित ) राणी सर्व मळी सुचंदन घसी, ने चर्चवामां हती, वृझ्यो त्यां ककळाट कंकणतणो, श्रोती नमि भूपति । सवादे पण इन्द्रथी दृढ़ रह्यो, एकत्व साधुं कयुं, . एवा ए मिथिलेश चरित आ, संपूर्ण अत्रे थयु ॥ विशेषार्थ - रानियो का समुदाय चदन घिसकर विलेपन करनेमे लगा हुआ था, उस समय ककणकी खलभलाहटको सुनकर नमिराज प्रतिबुद्ध हुए । वे इन्द्र के साथ सवादमे भी अचल रहे, और उन्होने एकत्व को सिद्ध किया । ऐसे उन मुक्तिसाधक महावैरागीका चरित्र 'भावनावोध' ग्रन्यके तृतीय चित्रमें पूर्ण हुआ । चतुर्थ चित्र अन्यत्वभावना ( शार्दूलविक्रीडित ) भ्रात ना, ना मारा तन रूप काति युवती, ना पुत्र के ना मारा भृत स्नेहीओ स्वजन के, ना गोत्र ना मारा धन धाम यौवन धरा, ए मोह के ज्ञात ना । अज्ञात्वना; रे ! रे ! जीव विचार एम ज सदा, अन्यत्वदा भावना ॥ V विशेषार्थ - यह शरीर मेरा नही, यह रूप मेरा नही, यह काति मेरी नही, यह स्त्री मेरी नही, ये पुत्र मेरे नहीं, ये भाई मेरे नहीं, ये दास मेरे नही, ये स्नेही मेरे नही, ये संबंधी मेरे नही, यह गोत्र मेरा नही, यह जाति मेरी नही, यह लक्ष्मी मेरी नही, ये महालय मेरे नही, यह यौवन मेरा नही और यह भूमि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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