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________________ परिशिष्ट ५ ९०३ देह-अवगाहना-देह जितने क्षेत्रको घेरे, देहप्रमाण क्षेत्र। नरकगति-जिस गतिमे जीवोको अत्यत दुख है । दोगुंदकदेव-अत्यधिक क्रीडा करनेवाले देव, तीव्र नरक सात है . रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, विषयाभिलाषी देव । पकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा दोरंगो-दो रगवाला, चचल । , (तमतमप्रभा)। (देखें-तत्त्वार्थसूत्र) द्रव्य-गुण-पर्यायके समूहको द्रव्य कहते हैं। नरगति-मनुष्यगति । | द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणादिरूप कर्मपरमाणुओको द्रव्यकर्म नव अनुदिश-दिगम्बर जैनशास्त्रोमें अवलोकमें नव ___ कहते है । वे मुख्यरूपसे साठ है। ग्रैवेयकके ऊपर नौ विमान और माने है जिन्हें नव द्रव्यमोक्ष-आठ कर्मोंसे सर्वथा छूट जाना । अनुदिश कहते है। इनमे सम्यग्दृष्टि जीव ही जन्म लिंग-सम्यग्दर्शनरहित मात्र वाह्य साधुवेश। लेते है, तथा वहाँसे निकलकर जीव उत्कृष्ट दो द्रव्यानुयोग-जिन शास्त्रोमे मुख्यरूपसे जीवादि छह भव धारण करके मोक्ष जाते हैं। द्रव्य और सात तत्त्वोका कथन हो। (देखें व्याख्या- नवकारमंत्र-जैनोका अत्यत मान्य महामत्र-"नमो । नसार १-१७३) अरिहताण, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाण, नमो द्रव्याथिकनय-जो वचन वस्तुकी मूलस्थितिको कहे, उवज्झायाण, नमो लोए सव्वसाहूण।" (मोक्षमाला शुद्ध स्वरूपको कहनेवाला, द्रव्य ही जिसका प्रयो- शिक्षापाठ ३५) पाथिकनय । नवकेवललब्धि-चार घनघाती कर्मोके क्षय होनेसे घ केवली भगवानको नौ विशेष गुण प्रगट होते हैं .धर्म-जो प्राणियोको ससारके दु खोंसे छुड़ाकर उत्तम अनतज्ञान, अनतदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकआत्मसुख दे । (रत्नकरण्डश्रावकाचार) चारित्र, अनतदान, अनतलाभ, अनंतभोग, अनंतधर्मकथानुयोग-जिन शास्त्रोमे तीर्थकरादि महापुरुषो. उपभोग, अनतवीर्य । (देखे सर्वार्थसिद्धि अ० २) के जीवनचरित्र हो । (व्याख्यानसार १-१७३) नवग्रैवेयक-स्वर्गोके ऊपर नवग्रंवेयकोकी रचना है, धर्मद-धर्म देनेवाला । वहाँ सभी अहमिन्द्र होते हैं। उन विमानोंके नाम धर्मध्यान-धर्ममें चित्तको लीनता। यह धर्मध्यान इस प्रकार है -सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशो चार प्रकारसे है आज्ञाविचय, अपायविचय, धर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस, प्रीतिविपाकविचय और सस्थानविचय । (विशेषके लिये कर । (त्रिलोकसार) देखे मोक्षमाला पाठ ७४, ७५, ७६) नवतत्त्व-जीव, अजीव, आत्रय, वध, सवर, निर्जरा, धर्मास्तिकाय-एक द्रव्य, जो गतिपरिणत जीव तथा मोक्ष, पुण्य और पाप । (मोक्षमाला पाठ ९३) पुद्गलोको गमन करनेमें सहायभूत हो, जैसे पानी नवनिधि-चक्रवर्ती नवनिधिके स्वामी होते हैं। उन मछलियोको चलने में सहायक है । (द्रव्यसग्रह) नवनिधियोके नाम इस प्रकार है :-कालनिधि, धुवेइ वा-(ध्रौव्य) वस्तुमें किसी प्रकारसे परिणमन महाकालनिधि, पाडुनिधि, माणवकनिधि, शबनिधि, होते हुए भी वस्तुका कायम रहना। (मोक्षमाला) नैपनिधि, पद्य निधि, पिंगलनिधि और रत्ननिधि । नव नोकषाय-अल्प कपायको नोकपाय रहते हैं। नपुंसफवेद-जिस कपायके उदयसे स्त्री तथा पुरुष उसके नौ भेद इस प्रकार है -हास्य, रति, अरवि, दोनोमे रमण करनेकी इच्छा हो। शोक, भय, जुगुप्सा, स्योवेद, पुरुपवेद, नपुसकर्वेद । नमस्कारमत्र-नवकार मय । नवपद-अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, नय-वस्तुके एक देश (अश) को ग्रहण करनेवाले ज्ञानको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, नभ्यचारिय तथा तप । नय कहते है । जैन शास्त्रोमें मुल्यल्पसे दो नयोका नाभिनंदन-नाभिराजाफे पुत्र, भगवान लाभदेव । वर्णन है . द्रव्याथिक्नय और पर्यायापिकनय । इन नारायण-परमात्मा, भोजष्ण । नास्ति--अभाव। नयोगे सब नयोका समावेश हो जाता है। -
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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