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________________ ९०२ श्रीमद राजचन्द्र तीन मनोरथ-(१) आरभ-परिग्रहका त्याग (२) समयमें १०८ सिद्ध, (१०) असयतिपूजा, ये दश __ पांच महाव्रतोका धारण, (३) मरणकालमे आलो- अपवाद हैं । (ठाणागसूत्र) चनापूर्वक समाविमरणकी प्राप्ति । दश बोल विच्छेद-श्री जम्बूस्वामीके निर्वाणके बाद तीन समकित-(१) उपशम समकित, (२) क्षायोप- इन दश वस्तुओका विच्छेद हुआ-(१) मन पर्यवशमिक समकित, (३) क्षायिक समकित; अथवा (१) ज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाकलब्धि, आप्तपुरुषके वचनकी प्रतीतिरूप, आज्ञाकी अपूर्व (४) आहारक शरीर, (५) क्षपकश्रेणी, (६) रुचिरूप, स्वच्छदनिरोधपूर्वक आप्तपुरुपकी भक्ति- उपशमश्रेणी, (७) जिनकल्प, (८) तीन मयमरूप, यह समकितका पहला प्रकार है। (२) परिहारविशुद्धि सयम, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यातपरमार्थकी स्पष्ट अनुभवाशरूप प्रतीति यह सम चारित्र, (९) केवलज्ञान, (१०) मोक्षगमन कितका दूसरा प्रकार है । (३) निर्विकल्प परमार्थ (प्रवचनसारोद्धार)। अनुभव यह समकितका तीसरा प्रकार है। (आक दशविधि यतिधर्म-उत्तम क्षमादि दशलक्षणरूप धर्म । ७५१) दशविधि वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी तीव्रज्ञानदशा-सर्व विभावसे उदासीन और अत्यत आदि दस प्रकारके मुनियोकी सेवा करना यह दस शुद्ध निजपर्यायका सहजरूपसे आश्रय । आक ५७२ __ प्रकारका वैयावृत्य तप है । (देखे मोक्षशास्त्र अ० ९, सूत्र २४) तोत्रमुमुक्षुता-प्रतिक्षण ससारसे छूटनेकी भावना, अनन्य प्रेमसे मोक्षके मार्गमे प्रतिक्षण प्रवृत्ति दर्शन-जगतके किसी भी पदार्थका रसगघादि भेदरहित करना । (देखें आक २५४) निराकार प्रतिविम्वित होना, उसका अस्तित्व ज्ञात होना, निर्विकल्परूपसे 'कुछ है' ऐसा दर्पणकी तुच्छसंसारी-अल्पससारी। झलककी भाँति पदार्थका भास होना, यह दर्शन है, तुष्टमान–प्रसन्न, राजी, खुश । विकल्प होनेपर 'ज्ञान' होता है । त्रस-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और दर्शनपरिषह-परमार्थ प्राप्त होनेके विषयमे किसी भी पचेन्द्रिय जीवोको अस कहते हैं। प्रकारकी आकुलता-ज्याकुलता । (आक ३३०) त्रिदंड-मनदड, वचनदड, कायदड । दर्शनमोहनीय-जिसके उदयसे जीवको निजस्वरूपका त्रिपद-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, या ज्ञान, दर्शन, चारित्र। भान न हो, तत्त्वरुचि न हो। त्रिराशि-मुक्तजीव, सजीव और स्थावरजीव, या दीर्घशंका-शौचादि क्रिया। ___ जीव, अजीव और दोनोके सयोगरूप अवस्था । दुरंत--जिसका पार पाना कठिन है, तथा, जिसका त्रेसठशलाकापुरुष-२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, परिणाम खराब है। ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव, ९ बलभद्र, इस प्रकार दुरिच्छा-खोटी इच्छा । ६३ उत्तम पुरुष माने गये है । दुर्धर-कठिनतासे धारण करनेयोग्य, प्रबल, प्रचड । दुर्लभ-कठिनतासे प्राप्त होने योग्य । दम-इन्द्रियोको वश करना । दुर्लभबोधि-सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्तिकी दुर्लभता । दश अपवाद-इन दश अपवादोको आश्चर्य भी कहते दुषमकाल (कलियुग)-पचमकाल । वर्तमानमें पचम है । (१) तीर्थंकर पर उपसर्ग, (२) तीर्थंकरका काल चल रहा है, अन्य दर्शनकारोने इसे ही कलिगर्भहरण, (३) स्त्री-तीर्थंकर, (४) अभावित युग कहा है। जिनागममें इम कालकी 'दुषम' परिपद्, (५) कृष्णका जपरकका नगरीमे जाना, सज्ञा कही है । (आक ४२२) (६) चद्र तथा सूर्यका विमानसहित भ० महा- दृष्टिराग-धर्मका ध्येय भूलकर व्यक्तिगत राग करना। वोरकी परिपद्मे आना, (७) हरिवपके मनुष्यसे देखतभूली-दर्शनमोह, देहाच्यास, पदार्थको देखते ही हरिवशकी उत्पत्ति, (८) चमरोत्पात, (९) एक उस पर रागादि भाव करना । (आक ६४१)
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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