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________________ ९०४ श्रीमद् राजचन्द्र नास्तिक-आत्मा आदि पदार्थोको नहीं माननेवाला। पद्मवन-कमलवन । निकाचित कर्म-जिन कर्मोंमे मक्रमण, उदीरणा, पद्मासन-एक प्रकारका आसन । उत्कर्षण, अपकर्षण आदि द्वारा परिवर्तन न हो, परधर्म- अन्य मत । पुद्गलादि द्रव्योका धर्म आत्माके किन्तु निश्चित समयपर ही उदयमे आकर फल दें। लिये परधर्म है। निगोद-एक शरीरमें अनत जीव हो ऐसी अनतकाय। परभाव-परद्रव्यका भाव । निज छंद-अपनी इच्छानुसार चलना। परमधाम-उत्तम स्थान, अतिशय तेज । निदान-धर्मकार्यके फलमें आगामी भवमें सासारिक परमपद-मोक्ष; शुद्ध आत्मस्वभाव । सुखकी अभिलाषा करना, कारण । परम सत्-आत्मा, परमज्ञान, सर्वात्मा । आक २०९ निदिध्यासन-अखड चिन्तन । परम सत्सग-अपनेसे ऊंची दशावाले महात्माओका निबधन-वधन, बाँधा हुआ। समागम । नियति-नियम, भाग्य, होनी, जो अवश्य होकर रहे। परमाणु-पुद्गलका छोटेसे छोटा भाग । निरंजन-कर्म-कालिमारहित । परमार्थ सम्यक्त्व-जिस पदार्थको तीर्थकरने 'आत्मा' निरुपक्रम आयुष्य-जो आयु वीचमें टूटे नही, निका- कहा है, उसी पदार्थकी उसी स्वरूपसे प्रतीति हो __चित आयु । उसी परिणामसे आत्मा साक्षात् भासित हो। निर्गन्य-साधु, जिसकी मोहकी गांठ टूटी है। (आक ४३१) निग्रंन्थिनीसाध्वी। परमार्थ सयम-निश्चयसयम, स्वस्वरूपमें स्थिति । निर्जरा-आत्मासे कर्मोका आशिकरूपमे क्षय होना। (आक ६६४) नियुक्ति-शब्दके साथ अर्थको जोडनेवाली, टीका । परमावगाढ सम्यक्त्व-केवलज्ञानीका सम्यक्त्व परनिर्वाण-आत्माकी शुद्ध अवस्था, मोक्ष । मावगाढ सम्यक्त्व है। निर्विकल्प-निराकार दर्शनोपयोग, उपयोगकी स्थिरता, परसमय-अन्य दर्शन, समय अर्थात् आत्मा, उसे भूलविकल्पोका अभाव । कर दूसरे पदार्थोंमें वृत्तिका जाना या लीन होना । निविचिकित्सा सम्यग्दर्शनका तीसरा अग, महात्मा- पराभक्ति-उत्तम भक्ति, ज्ञानीपुरुषके सर्व चरित्रम ___ ओके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि न करना। ऐक्यभावका लक्ष होनेसे उसके हृदयमे विराजमान निर्वेद-ससारसे वैराग्य होना । परमात्माका ऐक्यभाव । (आक २२३) निर्वेदनी कथा-जिस कथामे वैराग्यरसकी प्रधानता हो परिग्रह- वस्तुपर ममता, मूर्छाभाव । निश्चयनय-शुद्ध वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला ज्ञान । परिवर्तन-घुमाव, फेरा, हेरफेर, रूपान्तर । निहार-मल-त्याग, शौचक्रिया । पर्यटन-परिभ्रमण । निःश्रेयस-मोक्ष, दु खका अभाव । पर्याय-पदार्थकी बदलती हुई अवस्था । प्रत्येक वस्तु नेफी-भलाई, उपकार, ईमानदारी । पर्यायवाली है, उसमे परिणमन होता ही रहता है। नेपथ्य-पर्देके पीछेका स्थान, अतर । पर्यायवद्धता-उमरमे वडाई, दीक्षामें बडा । नैष्ठिक-निष्ठावान, श्रद्धावान, दृढ । पर्यायालोचन-एक वस्तुको दूसरी तरहसे विचारना । नौतम-नवीन (नवतम) पर्युषण-जैनोका एक महान पर्व । पल-२४ सैकड प्रमाण समय, ६० विपल । पतग--एक प्रकारका वृक्ष, जिसकी लकडीमेंसे लाल पंथ-सम्प्रदाय, मत, मार्ग । ___ कच्चा रग निकलता है, कागजकी पतग। पंद्रह भेदसे सिद्ध-तीर्थ, अतीर्थ, तीर्थंकर, अतीर्थकर, पतित-पापी, अवोदशावाला। स्वयवुद्ध, प्रत्येकवुद्ध, बुद्धबोधित, स्त्रीलिंग, पुरुषपवस्थ-ध्यानका एक भेद, जिसमे अरिहतादि पर- लिंग, नपुसकलिंग, अन्यलिंग, जैनलिंग, गृहस्थलिंग, मेष्ठियोका चिन्तन किया जाता है। एक, अनेक । (व्याख्यानसार २-५) प
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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