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________________ चित्रालकार के निरूपण का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य दण्डी को है । आचार्य दण्डी के अनुसार जिसमें ऊर्ध्व-अप क्रम से लिए गए वर्गों में एक वर्ण व्यवहित समानकारता पायी जाय, उसे चित्रकाव्य कहा गया है । चित्रकाव्य के विशेषज्ञ विद्वान इसे अर्ध गोमूत्रिका नाम से जानते हैं ।' इन्होंने चित्रकाव्य के निम्न भेदों का उल्लेख किया है - गोभूत्रिका बन्ध, अर्षभ्रम, सर्वतोभद्रम्, स्वरनियम, स्थान नियम एव वर्णनयम किन्तु आचर्य दण्डी काव्य सरचना मे इन्हे दुष्कर स्वीकार करते है। दण्डी के पश्चात आचार्य रूद्रट ने इसका निरूपण किया है उनके अनुसार - जहाँ क्रमिक वर्णयोजना के आधार पर वस्तुओं के चित्र रचे जायें वहाँ चित्रालकार होता है । इन्होंने इसमे विचित्रता का होना आवश्यक बताया है । इन्होंने चक्र, खड्ग, मुसल, शरशूल शक्ति, हल-तुरग, पद बन्ध, गजपद बन्ध आदि बन्ध चित्रों की भी चर्चा की है । इसके अतिरिक्त अनुलोम, प्रतिलोम तथा वर्ण्यविन्यास जन्य वैचित्र्य के रूप मे भी भेदों का उल्लेख किया है । भोज ने चित्रालंकार की स्थिति वर्ण, स्थान, स्वर, आकार, गति, बन्ध के आधार पर किया है तथा इसके अनेक भेदों का उल्लेख भी किया है जिसके अन्तर्गत प्रहेलिकाओं का भी उल्लेख किया है । आचार्य मम्मट खड्ग-बन्ध, मुरज-बन्ध, पद्म-बन्ध तथा सर्वतोभद्र रूप से चार भेदों का ही उल्लेख किया है । आचार्य अजित्सेन के अनुसार जहाँ धीरोष्ठ, विन्दुमद, बिन्दुच्युतकादि अलकारों को देख सुनकर आश्चर्य हो उसे चित्रालकार कहते है । मम्मट ने --------------------------------------- वर्णानामेकरूपत्व यत्वेकान्तरमईयो । गोमूत्रिकेति तत् प्राहुर्तुष्कर तद्विदोयथा ।। काव्यादर्श-3/78 रू0 काव्यालंकार - 5/1 वही, 5/2-4 स0क0म0 - 2/109 का0प्र0 - श्लोक संख्या 385-388 धीरोष्ठयबिन्दुमद् बिन्दुच्युत्कादित्वतोऽद्भुतम् । करोति यत्तदत्रोक्त चित्र चित्रविदा यथा ।। अ०चि0 - 2/2
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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