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________________ अध्याय - 3 चित्रालंकार निरूपण इसके पूर्व कि चित्रालंकार का निरूपण किया जाय, चित्रालकार के स्वरूप के विषय मे ज्ञान प्राप्त कर लेना नितान्त आवश्यक होगा । दण्डी आदि आचार्यों के अनुसार जहाँ श्लोक की इस प्रकार की संरचना की जाय कि उसमें पद्म, खग मुरजादि के चित्रों का निर्माण हो सके तो उस रचना को चित्रालकार की कोटि में परिगणित किया गया है ।' आचार्य अजितसेन के अनुसार जिस उक्ति से आश्चर्य की उत्पत्ति हो उसे चित्र कहते हैं 12 __इसके अतिरिक्त इन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषा के जिस रचना विशेष मे उक्ति की विचित्रत हो उसे भी चित्र कहा है । एक प्रकार का सादृश्य प्रतीति होने पर उसे शुद्ध चित्र के रूप मे स्वीकार किया है । सस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश भूतभाषा या पैशाची - इन चारों में चित्रकाव्य की स्थिति सभव है । यहाँ शका उत्पन्न हो सकती है कि वर्ण अमूर्त हैं उनसे चित्र निर्माण कैसे सम्भव है ? इस शका के समाधान में यह कहा ज सकता है कि वर्णों को लिपिबद्ध करके उनसे खड़, पद्म, कन्धादि के रूप में रचना की जा सकती है अत चित्रालकार को शब्दालकार भी स्वीकार किया जा सकत है । अलकारसर्वस्व के टीकाकार विद्याचक्रवर्ती भी उक्तमत के ही पोषक हैं । - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - का काव्यादर्श - 3/78 ख का0प्र0 - 9/85 धीरोष्ठयबिन्दुमद् बिन्दुच्युस्कादित्वतोऽद्भूतम् । करोति यत्तदत्रोक्तं चित्र चित्रविदा यथा ।। अचि0 - 2/2 क) संस्कृतप्राकृतयुक्तिवैचियं विद्यते । तच्चित्रमकवण्य तु शुद्ध तत्परिभाष्यते ।। अ०चि02/16 खि अचि0 2/119-122 का0प्र0 - कालबोधिनी टीका नवम उल्लास, पृ0 - 529 लिपिसन्निविष्टानं वर्णाना वाच कत्वाभावादित्यत आहयद्यपीत्यादि । खुगादिसन्निवेशो हि लिप्यक्षरापामेव न धोत्राकाशा समवापिनाम् । वाचकत्वं तु -------- शब्दालंकारत्वमुपचर्यत इतिभावः । अ0स0 - संजीवनी टीका पृ0 - 38
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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