SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य मम्मट के मत में जिस क्रम मे जितनी संख्या में पदार्थों का प्रथमत निर्देश हो उसी क्रम से उतनी ही संख्या मे यदि पुन पूर्व वर्णित पदार्थों के साथ सम्बन्ध बताया जाए तो वहाँ यथासख्य नामक अलकार होता है । आचार्य अजितसेन के अनुसार जिस क्रम से पहले अर्थों का निरूपण किया गया हो, पश्चात् कहे गये अर्थों का भी यदि उसी क्रम से प्रतिपादन किया जाए तो वहाँ यथासंख्य अलकार होता है । 2 आचार्य रूय्यक, विश्वनाथ तथा निरूपित क्रम को स्वीकार कर लिया प० राज जगन्नाथ ने अजितसेन द्वारा इतना अवश्य है कि आचार्य रुय्यक ने इसे शाब्द एव आर्थ दोनों स्थलों पर स्वीकार किया है । समास रहित पदों का समास रहित पदों के साथ सम्बन्ध रहने पर शाब्द यथासख्य अलंकार होता है और अर्थ विश्लेषण के पश्चात् जहाँ सम्बन्ध का ज्ञान होता है वहाँ आर्थ यथासंख्य होता है । :: 198 :: आचार्य अजितसेन ने परिभाषा में केवल अर्थों के क्रमिक अनुनिर्देश की ही चर्चा की है । इन्होंने इसके शाब्द भेद का उल्लेख नहीं किया । यथासंख्य के सदर्भ मे रूय्यक तथा प० राज जगन्नाथ का मत युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता क्योंकि समास और असमास के आधार पर भेद तो संभव है किन्तु लक्षण नहीं । क्योंकि इसका चमत्कार क्रम से निर्दिष्ट पदार्थों के क्रमिक अन्वय में निहित है। अनुसधात्री के विचार से अजितसेन कृत परिभाषा सरल, स्पष्ट तथा वैज्ञानिक है। । 2 3 यथासंख्यं क्रमेणैव क्रमिकाणा समन्वय ।। उदिष्टा ये क्रमेरर्था पूर्वं पश्चाच्च तै क्रमै । निरूप्यन्ते तु यत्रैतद् यथासख्यमुदाहृतम् ।। क) अ०स०, पृ० (ख) सा0द0, 10/79 [ग] रं०ग०, पृ० (घ) चन्द्रा0, 5/92 (ड) कुव0, 109 - 187 643 का0प्र0, 10/108 अठिचि०, 4/279
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy