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________________ अर्थापत्ति: अर्थापत्ति का विकास भरत के 36 काव्य लक्षणों से हुआ है । इनके अनुसार जहाँ अर्थान्तर के कथन से वाक्य माधुर्य युक्त अन्यार्थ की प्रतीति हो वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है ।' आचार्य भोज के अनुसार जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रतीत होने वाला अर्थः सगत न प्रतीत हो और उससे अर्थान्तर की प्रतीति हो तो वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है ।2 आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ किसी अर्थ की निष्पत्ति मे कैमुत्य न्याय से अन्यार्थ की प्राप्ति हो, वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है । इसमे किम्, का, क आदि सर्वनामों से कैमुत्य न्याय से अन्य तथ्य की प्रतीति होती है । विद्यानाथ, अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ भी अजितसेन की ही भाँति कैमुत्य न्याय से ही अर्थान्तर की प्रतीति होने पर अर्थापत्ति को स्वीकार करते है 14 जिस प्रकार से मूषक के दण्ड खा लेने से उसमे सलग्न माल- पूए को खा लेने की सहज कल्पना की जाती है उसी प्रकार से किसी अर्थ की उत्पत्ति से अन्य पदार्थ की प्रतीति अनायास ही हो जाती है । जैसे- 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुडक्ते' । वाक्य से रात्रि भोजन का ज्ञान अनायास ही हो जाता है अन्यथा स्थूलत्व सभव नहीं है । अत रात्रि विषयक ज्ञान अर्थापत्ति के माध्यम से ही होता है परिसंख्याः __ आचार्य भामह, दण्डी तथा उद्भट ने इसका उल्लेख नहीं किया । इसके उल्लेख का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य रुद्रट को है । आचार्य रूद्रट के अनुसार -------------------------- ना०शा०, 16/32 अचि0, 4/281 अर्थान्तरस्य कथने यत्रान्यार्थ प्रतीयते । वाक्यमाधुर्यसंयुक्तं सार्थापत्तिरुदाहृता ।। स0क0म0, 3/52 यत्र कस्यचिदर्थस्य निष्पत्तावन्यदापतेत् । वस्तु कैमुत्यसंन्यायादापत्तिरियं यथा ।। का प्रताप0, पृ0 - 548 ख कुव0, 120 गः र0ग0, पृ0 - 656-57 का अ0सं0, पृ0 - 19-198 खि सा0द0, 10/83
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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