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________________ यथासंख्य संस्कृत काव्यशास्त्र मे इसके तीन नामों का उल्लेख प्राप्त होता है. यथासख्य, सख्यान तथा क्रम । आचार्य भामह, उद्भट, रुद्रट, मम्मट, रूय्यक, जयदेव, विद्यानाथ, विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित तथा पं0 राज जगन्नाथ ने इसे यथासंख्य की अभिधा प्रदान की है। जबकि वामन और शोभाकर मित्र इसे क्रम नामक अलंकार से अभिहित करते हैं। आचार्य भामह के अनुसार जहाँ विभिन्न धर्मों वाले अनेक पूर्वकथित पदार्थों का इसी क्रम से निर्देश किया जाए वहाँ यथासंख्य अलकार होता है । 2 आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ प्रथम कथित पदार्थों का इसी क्रम से वर्णन किया जाए वहाँ यथासंख्य संख्यान अथवा क्रम नामक अलंकार होता है । 3 भामह ने 'असधर्माणाम्' पद के द्वारा सिद्ध किया था कि क्रमश. अन्वित होने वाले पदार्थों में सामर्थ्य का अभाव होना चाहिए किन्तु आचार्य दण्डी ने इसकी चर्चा | नहीं की । उद्भट कृत परिभाषा भामह से अनुकृत है । 4 वामन ने इसे यथामुख्य न कहकर 'क्रम' कहा है तथा उसमें उपमेय व उपमान के क्रमिक सम्बन्ध का होना आवश्यक बताया । इनकी परिभाषा परवती आचार्यों द्वारा मान्य न हो सकी । रुद्रट के अनुसार जहाँ अनेक पदार्थ जिस क्रम से पूर्व निर्देशित किये गए हों यदि क्रम से पुन पूर्व के विशेष या विशेषण भाव को ग्रहण करते हुए उपनिबद्ध किए जाएँ तो वहाँ यथासख्य अलकार होता है । इनके अनुसार पूर्वोदिष्ट पदार्थों का विशेषणों द्वारा कथन आवश्यक बताया गया है 15 1 2 3 4 5 [कý उपमेयोपमानाना क्रमसम्बन्ध क्रम ।। काव्या०सू०, 4/3/17 (ख) अ०र०, पृ० 162 भाO काव्या, 2/88 का0द0, 2 / 273 काव्या० सा० स०, 2/3 रू०, काव्या० 7/34, 35 -
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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