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________________ ८-आकर्षण और स्त्री-पुरुषसम्बन्ध प्रश्न-स्त्री और पुरुषका प्रेम क्या पुरुष-पुरुष अथवा स्त्री-स्त्रीके प्रेमसे भिन्न है ? उत्तर-हाँ भिन्न है। प्रश्न--किस तरह ? उत्तर-वह शायद कुछ अधिक दुर्निवार्य है और अधिक संगत भी है । प्रश्न--स्त्री और पुरुषका संयोग-सहयोग भी क्या समाजके प्रति एक कर्तव्य है? उत्तर- समाजमें स्त्री हैं, पुरुष हैं । इसलिए, समाजमें उन दोनोंका सहयोग न हो, तो समाज कैसे होगा ? हाँ, समाज-भावनाके विकासमें सहायक होकर वह सहयोग कर्तव्य-रूप भी हो जाता है। उक्त सहयोगको नीतिद्वारा नियमित-संयत करना पड़ता है जिससे वह संयुक्त सामाजिकताकी बढ़ती हुई भावनाको मदद दे, उसमें बाधक न हो । दांपत्य और परिवार आदि संस्थाएँ इसी राहों बनी और बनी हुई हैं। प्रश्न-विवाहका कारण आपके विचारसे स्त्री-पुरुषका एक दूसरेके प्रति आकर्षण है अथवा उन दोनोंका समाजके प्रति कर्त्तव्य ? उत्तर-विवाहकी संस्था सामाजिक हेतुसे जन्मी है। मैथुन तो पहिलेसे था । पशुओंमें भी है। किन्तु, उसको अनर्गल रहने देनेसे काम नहीं चलता दीखा । उसे नीति-नियमों में बाँधनेकी आवश्यकता प्रतीत हो आई। उसको संयमकी आवश्यकता ही कहिए । मेरा खयाल है कि नाना कालों और देशोंमें मानवजातिने इस संभोगको नियमित करनेकी आवश्यकताको लेकर तरह-तरहके प्रयोग और परीक्षण किये होंगे। विवाह वैसा ही एक प्रयोग है। वह संभोगके लिए नहीं है, संभोगको संयत करनेके लिए है। इसलिए मैं मानता हूँ कि उसका आधार भोग नहीं है, उत्सर्ग है । 'प्रेम' के नामपर साधारणतया जिस विलासका आशय लिया जाता है, वह विवाहकी सार्थकता नहीं हैं । एक सामाजिक कर्त्तव्यकी पूर्तिके अर्थ विवाहका विधान है। 'विधान'का आशय यह कि सच्चे
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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