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________________ ५६ प्रस्तुत प्रश्न विवाहका वही स्वरूप है, और हरेक विवाहको अधिकाधिक तदनुरूप होना चाहिए । जो ऐसा नहीं है, वह उतना ही कम 'विवाह' है । प्रश्न – इतिहाससे ज्ञात होता है, हरेक पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार सुन्दरसे सुदर स्त्रीपर, और वह भी अधिक से अधिक संख्यामें, अधिकार पाने की चेष्टा करता आया है । तो यह विवाह पुरुषकी अधिकार भावनाका विकास स्वरूप ही क्यों न माना जाय ? उत्तर -विकास-स्वरूप ऐसे विवाहोंको इसलिये नहीं मान सकते कि वे विकास में सहायता नहीं देते। इसमें क्या उस पुरुपका कोई अपना विकास हुआ कहा जा सकता है जिसने ऐसे अनेकानेक भोग-विवाह किए हैं ? या कि उन स्त्रियों का ही किंचित् विकास हुआ माना जा सकता है जिनसे विवाह के नामपर ये संबंध स्थापित किये गये और विवाह ( ? ) के कुछ ही बाद जिन्हें जनानखाने में घुटते रहने के लिए पटक दिया गया। इससे समाजका क्या कोई सुख बढ़ा ? किसी व्यक्ति का कोई सुख बढ़ा ? फिर यह ' विकास ' कैसा ? प्रश्न -- मैं यह नहीं कहता कि उस विवाहसे समाजका वास्तविक विकास हुआ कि नहीं। बल्कि कहनेका अभिप्राय यह था कि मनुष्यकी स्त्रीपर अधिकारकी वृत्तिहीका समाजके साथ समन्वय विवाह रूपमें हुआ है । क्या इसमें आपको कुछ आपत्ति हैं ? - उत्तर- - समन्वय इस रूप में हुआ है, यह तो मैं मान लूँगा । पर इसी में यह आ जाता है कि अमर्यादित अधिकार जब संभव नहीं दीखा, तब मर्यादा के रूपमें यह संस्था पैदा की गई । इसका आशय यही होता है कि अधिकारकी भावना उसके मूलमें नहीं है, बल्कि उस अधिकारको संयत करने की आवश्यकता उस संस्थाके जन्मका कारण है । विवाह किसी जाति में भी देखिए, वैवाहिक विधिको निष्पन्न करनेवाली जो रीतियाँ और जो मंत्र हैं, उनमें मनुष्यकी हीन-वृत्ति नहीं, बल्कि उत्कर्ष वृत्ति ही व्यक्त हुई है । सब विवाह - विधियों में समर्पण की भावना है, वफादारीकी प्रतिज्ञा है । यह ठीक है कि प्रबलने अबलको अपना गुलाम समझने के लिए विवाह संस्थाको एक सहारा ही चाहे बना लिया, किन्तु, ऐसे विवाहित आचरणको कभी भी सफल नहीं समझा
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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