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________________ पाठशाला का जीवन ३९ सामर्थ्य कहां था, इसलिये असमर्थता प्रगट की, बस उनका सत्यसमाजीपन निकल गया । एक और कठिनाई है कि मना करना मेरे लिये कठिन होता है । साधारणतः कठिन प्रसंग आने पर भी मैं माँगता नहीं था इसलिये सोचता हूं जब कोई माँगने आया है तो उसके ऊपर उतना कठिन प्रसङ्ग आया होगा जितना मेरे जीवन में कभी नहीं आया ऐसी अवस्था में देना मेरा कर्तव्य है। पर वास्तविक बात तो यह है कि जितने माँगनेवाले होते हैं उन सब के जीवन में ऐसे कठिन प्रसङ्ग नहीं आते जिन्हें वे विना मागे टाल न सकते हों । कोई कोई की बात दूसरी है। . यहाँ उस माँगने से मतलब नहीं है कि घर में रुपया है पर किसी खास जगह या खास समय रुपयों की ज़रूरत हो गई और माँग लिया और घर आकर तुरंत दे दिया । पर बहुत से ऐसे मित्र भी मिले जिनने इस सहूलियत का भी दुरुपयोग किया । मेरा विस्तीर्ण अनभव है-यद्यपि हृदय की निर्बलता के कारण उसका पालन नहीं कर पाता हूं-कि मित्रता और रिश्तेदारी के बीच में पैसे का लेनदेन न आने देना चाहिये । देना हो तो दान या सहायता के रूपमें देना चाहिये । खैर, सीधी बात यह है कि मुझ से माँगना न बनता था न बनता है । बल्कि माँगने की कला के अज्ञान की 'अति हो गई है। संस्था के लिये माँगने में भी लज्जा मालूम होती है। इस दृष्टि से असफल होने का मुख्य कारण शायद यही हो। कुछ भी हो, मैं मितव्ययी या कंजूस था , और साथ ही सब तरह की व्यवस्था का आनन्द भी लेना चाहता था। मैंने एक
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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