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________________ ४०] आत्म कथा . डिब्बी अपनी पेटी में रख छोड़ी थी। उस डिब्बी का नाम क्या था 'क' । उसमें कभी कभी एकाध पैसा डाल दिया करता था । इस प्रकार कभी कभी उसमें चार आने तक इकडे हो जाते थे। उस वेंक नामक ध्रुवफंड में इससे अधिक धनसंग्रह नहीं कर पाता था। बहुत कठिन अवस्था में ही उसमें से पैसे निकाले जाते थे । एक बार ऐसा अवसर आया कि घर से पैसे न आपाये | पाठशाला से जो चार आने मिले वे खर्च हो गये सिर्फ एक पैसा वचा। इस एक पैसे से वीस दिन गुजर करना पड़ी । मैं यह भी नहीं चाहता था कि जरूरत होने पर किसी के सामने मुझे यह कहना पड़े कि मेरे पास एक भी पैसा नहीं है । कम से कम घर समाचार भेजने के लिये एक पैसा रहना जरूरी है ( उनदिना पोस्टकार्ड तीन पैसे में नहीं, एक पैसे में मिलता था) उधार लेने से तो ऐसी ही घणा थी जैसे पाप से होती है। उस समय भी मेरा विचार था और आज भी मेरा विचार है कि जो मनुष्य उधार लेता है वह अपने व्यक्तित्व को आत्मगौरव को नष्ट करता है, वैर के वीज वोता है। और आज तो इतना और कहता हूं कि पंजीवाद को जीवित रखता है। उधार लेने से घृणा यहां तक रही कि बम्बई में बहुत से दुकानदार कहा करते थे कि आप खाता रखिये महीने के महीने हिसाव चुका दीजिये या जब इच्छा हो तव हिसाब चुका दीजिये । पर मैंने दुकानों में भी इस प्रकार के खाते नहीं खोले। इतना उधार लेना भी मुझे बुरा मालूम होता था। हालाँकि इस प्रकार के खाते रक्ख जाँय तो कोई बुराई नहीं है | पर जहां तक न रक्खे जांय वहां तक
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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