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________________ ३८] आत्म कथा में यह सब कैसे हो सकता था। वहाँ तो बँधे हुए समय पर दो बार भोजन मिलता था । इसलिये सुवह काफ़ी भूख लग आती थी तब आधे पैसे के चने खाया करता था | कभी कभी जब भूख जोरदार मालूम होती तब अपने हिस्से के धीमें से-जो प्रति प्रतिपदा को मिट्टी के बर्तन में मिला करता था-एकाध तोला घी खालिया करता था, या पूरे पैसे के चने ले लेता था, इससे बढ़कर उलखर्ची कभी नहीं हुई। हां, कभी एक दो पैसे के फल भी ले लेता था। इस प्रकार छः सात आने महीने का खर्च यह था और वाकी पैसे स्टेशनरी और पुस्तक आदि के काम आते थे। कपड़े पिताजी दे जाया करते थे । इस प्रकार मजे में गुजर हो जाती थी। . उधार लेना और भीख माँगना ये कार्य मेरे लिये बड़े कठिन थे । इसलिये भी मितव्ययी हो गया था । उधार लेना एक तरह का पाप है यह समझ स्वभाव से ही मुझे मिली थी । अब भी मेरा यही विचार है । वल्कि उसमें इतना विचार और जुड़ गया है कि उधार लेने के समान उधार देना भी पाप है । अगर मित्रता का या रिश्तेदारी का नाश करना हो तो उधार माँगलो या उधार दे दो। इस विषय के कडुए अनुभव जीवन में बहुत से हुए। सैकड़ों रुपये खोये रिस्तेदारियाँ टूटी मित्रताएँ छूटीं । जब कोई उधार माँगने आये समझलो एक अमोघ आपत्ति आ गई । अगर उधार देते हो तो, और नहीं देते हो तो प्रेम नष्ट होता है। इस विषय के कडुए अनुभव सत्याश्रम की स्थापना के बाद आज कल भी हो रहे हैं । एक संज्जन जो सत्यसमाजी बन गये थे अपना मकान बनवाने के लिये कुछ हजार रुपया उधार मांगने आये । पर मेरे पास इतना
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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