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________________ [ ३१ । खिलाड़ी : . मेरे दल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जो शक्ति में मुझसे अधिक थे परन्तु : कहीं कुलीनता के कारण, कहीं अंधों में काने राजा के समान अपनी बुद्धि या भजनादि सम्बन्धी विद्वत्ता के कारण, कहीं पैसे दो पैसे प्रतिदिन खर्च कर सकने की अपनी अमीरी के कारण मेरा प्रभाव उनपर रहता था । इस प्रकार वर्ष डेढ़ वर्ष का समय खूब मजे में बीता। . . पर इस समय भी मेरे मनमें एक लालसा थी ही कि पंडित बनूं । मेरे गांव का एक लड़का संस्कृत पढ़ने सागर गया था छुट्टी में जल वह वहाँ से आया तो उसके रहन सहन में काफी परिवर्तन हो गया था और उसकी काफी प्रशंसा होती थी उसे देखकर मेरा.जी. ले. ले जाता था और मेरी भी इच्छा होती थी कि मैं भी किसी तरह संस्कृत पढ़ने चला जाऊँ । . एकवार मुझे मालूम हुआ कि इन्दौर में संस्कृत विद्यालय है वहाँ विद्यार्थियों को छः रुपया मासिक छात्रवृत्ति मिलती है पर उसी में अपने खाने पीने आदि का खर्च निकालना पड़ता है रोटी भी अपने हाथ से बनाना पड़ती है वर्तन भी मलना पड़ते हैं । मैं इन सब परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार हो गया पर पिताजी तैयार नहीं हुए। वे विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि मैं इतना कष्ट उठा सकूँगा, क्योंकि मैं घर से , बाजार तक लोटा ले जाता था तो मेरा हाथ दर्द करने लगता था उँगलियाँ फूल जाती थीं। लड़ने झगड़ने और खेलने को छोड़कर छोटे से छोटा काम भी मैं नहीं कर पाता था । ऐसी हालत में मैं रोटी बना सकूँगा कपड़े
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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