SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० ] आत्म-कथा सजाया गया । वहां कौड़ियों से चन्दा किया जाता था। मैं ठहरा सरदार, इसलिये चन्दे में पूरा पैसा या दो पैसे तक दे डालता था । कभी कभी सर्कस सरीखे साधारण खल तमाशे करके कौड़ियों का टिकट लगा कर धन-संग्रह करता । जरूरत होने पर अपने हाथ-खर्च के पैसे दो पैसे लगा देता । मेरी फौज के लड़के या तो गरीबों के थे या कंजूस अमीरों के, इसलिये मेरा सब पर रौब था । यहां तक कि जब उड़कों में परस्पर झगड़ा होता तब उसका निवटारा मैं ही करता । जो अपराधी होता उसे वेतों से पीटता, इसके लिये मैंने दो पैसे का बेत भी खरीद लिया था। इस प्रकार अपराधी को सजा देकर सोचता कि मैं मास्टर तो नहीं बन पाया पर जो कुछ बन पाया वह मास्टर से कुछ बुरा नहीं है । मुहल्ले में मेरा एक प्रतिस्पर्धी भी था, उस के तरफ लड़के न खिंच जाय इसकी बड़ी चिंता रखना पड़ती थी। इसके लिये नाना आकर्षक कार्यक्रम रखना पड़ते थे। इतने पर भी कभी कभी अकेला रह जाना पड़ता था और धैर्य से लोक-संग्रह का प्रयत्न करना पड़ता था। विरोधियों से घिर जाने पर कभी कभी अकेले ही सामना करना पड़ता था। इतनी चतुराई तब आगई थी कि चार छः विरोधी दूर से पत्थर मारें तो उन सबकी चोटों से में अपनी रक्षा कर सकूँ । आते हुए पत्थर की दिशा पहिचान कर ऊपर कूदकर या बैठकर या दायें वायें होकर चोट से वचने में । उस समय काफी होश्यार हो गया था । इसलिये विरोधी दल से' घिर कर आत्मरक्षा अच्छी तरह कर लेता था ।
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy