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________________ २ ___३२ ] आत्म कथा थो सकूँगा वर्तन मल सकूँगा इसकी आशा ही व्यर्थ थी, इसालेय पिताजी ने मुझे इन्दोर न भेजा। थोड़ी देर को मुझे अपनी नालायकी पर खेद हुआ पर बाद में फिर खिलाड़ी जीवन में डूब गया। इस जीवन से अनेक कड्डए अनुभव हुए। कभी अन्याय से दूसरों को सताया, कभी अन्याय से सताया गया, कचहरियों तंक झगड़े पहुँचने की नौबत आई और पहुँचे भी । इससमय मेरा जीवन आवारागर्दी का केन्द्र बन गया था । दस वर्ष की उम्र के वाद शिक्षणहीन लड़को का जीवन प्रायः ऐसा ही हो जाता है। शिक्षण चालू हो तब तो ठीक, नहीं तो इस उम्र का लडका बड़ा भद्दा जीव है । न तो शिशु समझकर उसे कोई प्यार कर सकता है न युवक समझकर उस का कोई आदर कर सकता है। पिताजी की एकमात्र सन्तान होने से मैं उन के प्यार को पाये हुए था पर और सब के लिये तो नटखटियों का सरदार था। पर सौभाग्य इतना ही था कि नटखटपन खेल कूँद तथा जरूरत होने पर मारपीट या गाली गलौज़ तक ही सीमित रहा । व्यभिचार, चोरी, विश्वासघात, बीड़ी, तम्बाकू, भंग आदि मुझे छूने नहीं पाये । कई दोस्तोंने बीड़ी आदि के लिये बड़ी कोशिश की मेरे मुँइमें हँस ह्स दी, दीवाली आदि के अवसरों पर तो गुरुजनों ने भी भंग पिलाने की कोशिश की पर मैने मुँह विगाड़ कर उल्टी करने का ढोंग कर के अपना बचाव कर लिया । व्यभिचार के लिये दोस्तोंने खूब जोर मारा। व्यभिचार का आनन्द, किस किस दोस्त ने कब कब किस किस कुमारी विधवा वेश्या आदि के साथ व्यभिचार किया इस की झूठी सच्ची कथाएँ मुझे सुनाई जाती,
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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