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________________ २४] आत्म कथा । मैदान में कपड़ा बिछाकर दूकान जमाते थे । इस से जो कुछ वचता वह घर में खाने खर्च में डाल देते । कभी अनाज रख दिया, शाकभाजी लादी, एक दो पैसे मेरा भी टेक्स था वह चुका दिया, पिताजी इससे अधिक न कर पाते थे। बाक़ी भार बुआ के ऊपर ही था। - घर में गरीबी रहने पर भी गरीबी और अमीरी की दो धाराएँ बहती थीं। मलचन्द्रजी, मैं और मेरी बहिन अमीरी की . । धारामें थे । हम लोगों को गेहूं की पतली पतली रोटियाँ मिलती थी, दाल शाक और घी भी मिलता था और कभी कभी दृध भी मिल जाता था परन्तु पिताजी और बुआजी गरीबी की धारा में थे वे दोनों घी तो किसी त्यौहार पर ही खाते। अगर हम लोगों से कोई गेहूं की रोटी वच जाती तो वे खाते थे। साधारणतः उनका भोजन था ज्वार की मोटी रोटियाँ जो कि बिना घी के छाछ या छाछ की कड़ी के साथ खाई जाती थीं। उन दिनों पड़ोसियों के यहां से मुफ्त में ही छाछ मिल जाया करता था और छाछ मांगने में दीनता नहीं समझी जाती थी। एक दिन मेरी बहिन ने पिताजी का भोजन देखकर कहा -~-वुआ, तुम कक्का को [ हम दोनों पिताजी को कंका कहा करते थे। कंडे सरीखी रोटियाँ क्यों देती हो ? वहिन की बातें सुनकर बुआ गंभीर हो गई, पिताजी हँस पड़े पर आँखें दोनों की गीली हो गई। उन दिनों मुझे भी नहीं मालूम था फिर मेरी छोटी बहिन को क्या मालूम होता कि बुआ के वात्सल्य के कारण हम
SR No.010832
Book TitleAatmkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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