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________________ ( ६३ ) जो हर्ष पहुंचाये या जो श्रानन्द 'पूर्ण और हर्षदायक हो। इस प्रकार हर वृत्तिके विषयमें किसी न किसी दृष्टि सन्देह करना सदैव संभव है परन्तु यह विदित है कि इस तरीके से कोई संतापजनक फल प्राप्त नहीं हो सकता है । बहुतसी दशाओंमें धातुवाद शब्दों के अर्थको यथेष्ट रोतिसे प्रकाश कर देगा, परन्तु प्रायः यथार्थ माच प्राप्ति के कारण शोंका प्रचलित या प्रसिद्ध भावका भी प्रयोग करना अवश्यकीय होगा । यद्यपि इस चातको दृष्टिगोचर रखना होगा कि इन प्रसंग योग्यताको अपनी प्रिय सम्मतिकी पुष्टिके कारण हठपूर्वक नष्ट न कर दें। इसलिये यह कहना सत्य न ठहरेगा कि इन्द्र सदैव शासनकर्ता जाति है और शासनकर्ता जातिके अतिरिक्त और कुछ भाव नहीं रखता है, और अग्नि अश्व विद्या या उष्णता के अतिरिक कभी और कुछ नहीं है, इत्यादि । उष्णताके भाव अग्नि और शासनकर्ता जातिके भावमें इन्द्र बिला शुबहा इस बात के योग्य नहीं है कि वेदके मन्त्रोमेंसे बहुत अधिक मन्त्र उनके लिये नियत किये जांय, मुख्यतया जब उनके विरोधी क्रमानुसार शीत और ऐसी जातिको जिस पर दूसरा शासन जमाये हो वैदिक देवालयमें कहीं स्थान नहीं मिला है । बहुतसी विद्यायें, उद्यम, गुण और जानवरोंके सिखाने की रीतियां और भी हैं जो मि० गुरुदत्तके भाव के लिहाजमे धग्नि और इन्द्रसे कम आवश्यक या उपयोगी नहीं है, मगर हमको वेदोंमें कोई मन्त्र उनके लिये नहीं मिलता है। न तो अश्व विद्या और न f
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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