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________________ जो इस ममलेको वैज्ञानिक ढग पर सिखानेवाला अकेला ही। धर्म है। यह युक्तियां इस असत्य ख्यालको दूर करदेती हैं कि जैन मत हिंदू मतकी पुत्री है, परंतु चूंकि बेटोकी उत्पत्तिके विचार से बहुत प्रकाश इस व्याख्या पर पड़ सकता है इसलिये सब हम विधि अनुकूल वेटोंके निकासकी खोज लगायेंगे। वर्तमान खोजने वेदोंको उस कालके मानिसक भावोका सग्रह माना है जब कि मनुष्य-वच्चेपनकी दशामें पोद्गलिक चमत्का. रोसे भयभीत रहता था और सब प्रकारको प्राकृतिक शक्तियों को देवी देवता मानकर उनके प्रसन्न करने के लिये दंडवत् करता था परन्तु उस समयकी हिन्दू सभ्यतासे, जो स्वयं वेदोंको प्रा. न्तरिक साक्षीसे स्पष्ट है यह ख्याल झूठा ठहरता है, क्योंकि पवित्र मन्त्रोके रचयिता किसी माने में भी प्रारंभिक अपक्क वृद्धि वाले मनुष्य या जङ्गलो न थे और उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अग्नि और अन्य प्राकृतिक शक्तियोके समक्ष आश्चर्यवान् और भयभीत होकर दडवत् करते थे। एक योपियन लेखकके अनुसार: 'पार्योका देश अनेक विभिन्न जातियांका निवासस्थान था ओर बहुतसे प्रांतों में बंटा था। वेटोमे वहुतसे राजाओं के नाम लिखे हैं. .. .. पुरपति, शहरोंके हाकिमों चक्लेदारों, जमींदारोका जिक्र है। ........सुवसधारी लियों और अच्छे बने हुये वस्त्रोंका उल्लेख है। इन हवालोंसे
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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