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________________ (१६) कि जैन मत, क्योंकि वौद्धमत वालोंने जैन मतसे निहायत सार्थक शब्द प्रास्रवको ले लिया है वह उसका प्रयोग करीव उसी मानोंमें करते हैं जैसा कि जैनी लोग। परन्तु उसके शब्दार्थमें नहीं, क्योंकि वह कर्म को सूक्ष्म माहा नहीं मानते हैं और आत्मा की सत्ताको नहीं मानते जिसमें कर्मोका पास्तव हो सके । संवरके स्थान पर वे असवक्खय ( प्रास्रवक्षय ) अर्थात् प्रास्त्रवका नाश, का व्यवहार करते हैं जिसको वह मग (मार्ग ) बताते हैं। यह प्रत्यक्ष है कि उनके यहां आस्रवके शब्दार्थका लोप हो गया है और इस लिये उन्होंने इस परिभापाको किसी ऐसे मतसे लिया होगा कि जिसमें उसके शब्दार्थ कायम थे। अर्थात् अन्य शब्दोंमें, जैनियोंसे । बौद्ध संवर शब्दका भी प्रयोग करते हैं जैसे शील-संवर (सदाचारके वमोजिव अपने मन वचन कायको काबू में रखना) और क्रिया रूपमें संवुत अर्थात् 'वशमें रक्खा ' का प्रयोग करते हैं जो ऐसे शब्द हैं जिनका ब्राह्मण लेखकों ने इस अर्थमे इस्तेमाल नहीं किया है, और इस कारण अनुमानतः जैन मतसे लिये गये हैं जहां वह अपने शब्दार्थमें पूर्णतया अपने भाव को प्रगट करते हैं। इस प्रकार एक ही युति इस वातके पुष्ट करनेके लिये उपयोगी है कि जैनियोंका कर्म सिद्धान्त उनके मतका आवश्यकीय और अखण्ड अंश है। और साथहीमें इस बातके सावित करनेके लिये भी कि जैन मत, वौद्ध मतके प्रारम्भमे बहुत ज्यादा प्राचीन है।
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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