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________________ (११) या दयासे नहीं। इसका मुख्य कारण यह है कि सिद्धात्मा(परमास्मा का सर्वोच्च पद आत्माका ही निज सत्यस्वरूप है। जिसको वह अशुद्ध अथवा अपूर्ण अवस्था में विविध कर्मोक बंधनोंके कारण प्रकट नहीं कर सकता है। यह कर्म विविध प्रकारकी शक्तियां हैं जिनकी उत्पत्ति आत्मा और माई ( पुदगल) के मेलसे होती है और जो केवल स्वयम् आत्माकी ही कृतियोंसे नाश भी की जा सकती है। जब तक आत्मा अपने सत्य स्वभावसे अनभिज्ञ रहता है तब तक वह अपना स्वाभाविक स्वरूप और सुखको प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं कर सक्ता है। अतः आत्माके स्वभाव और अन्य पदार्थोका और उन शक्तियोका ज्ञान जो प्रात्माके स्वाभाविक गुणों को घात करती हैं कर्मोके बंधनसे छुटकारा पानेके लिये नितांत आवश्यक है। वह यथार्थ अथवा सत्य ज्ञान है जो सात नियमों या तत्वों के सत्य श्रद्धानसे उत्पन्न होता है। जिसकी, आत्मा को उसके सुख-स्थान अथवा मुक्तिधाममें पहुंचानेको, आवश्यकता है। और इस सम्यक् ज्ञानके साथ साथ सम्यक्चारित्र अर्थात् ठोक मार्गपर चलनेकी भी नितांत आवश्यकता है। जिससे कर्म बंधनोका नाश होकर संसारके आवागमन अथवा जन्म मरण के दुःखसे निवृत्ति मिले। इस प्रकार सामान्य रोनिसे जैन धर्मकी यह उपर्युक्त शिक्षा है। और यह प्रत्यक्ष है कि यह सर्व शिक्षा लडी रूपमें है जो कारण कार्य के सिद्धान्त पर निर्भर है। अथवा यह एक पूर्ण
SR No.010829
Book TitleSanatan Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherChampat Rai Jain
Publication Year1924
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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