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________________ संदेश इक्कीसवाँ [ ५९ को इस बात मे अपमान का अनुभव न होगा, निरतिवाद न तो धन की अवहेलना करता धन जोडने की लालसा भी कुछ कम हो जायगी है न उसे पुण्य या आदर की चीज समझता है। और धनी होजाने पर जनहित के कार्य मे खर्च धनको समाजहित मे लगाने को ही आदरणीय करने की भी सूझेगी। समझता है। शंका-धनका इतना अपमान क्यो । विद्या सन्देश इक्कीसवाँ कला आदि की तरह यह भी एक शक्ति और सदाचार और विशेप सेवा ही महत्ता और सेवा-साधन है । अगर विद्वान का आदर करते है पूज्यता की निशानी समझी जावे। कलावान का आदर करते है तो धनवान का भाष्य-धार्मिक और सामाजिक दोनो क्षेत्रो क्यो न करे ? मे इस सन्देश को अपनाने की जरूरत है। हमारी समाधान-विद्या कला आदि के आदर उपासना भी इन्ही गुणो के आधार से होना चाहिये । मे भी उसके सदुपयोग का विचार किया जाना राम कृष्ण आदि की पूजा हम इसलिये न करे कि चाहिये । फिर भी धनवान के समान विद्वान आदि वे बलवान थे, सुन्दर थे, श्रीमान् थे, पर इसलिये की उपेक्षा न होना चाहिये । इसका मुख्य कारण करे कि वे सदाचारी थे, त्यागी थे, समाज की यह है कि विद्या कला आदि का सग्रह धन के उनने विशेष सेवा की थी । भयपूजा बिलकुल सग्रह की तरह पापरूप नही है। अधिक धनवान निकल जाना चाहिये । शनैश्चर बडे क्रूर है कहीं बनने के लिये प्राय: दूसरो का हक मारना पड़ता नाराज न हो जाये इसलिये उनकी पूजा करो, इस है पर अधिक विद्वान या कलावान बनने के लिये मान्यता मे अन्धविश्वास तो है ही पर दुर्जनता ऐसा नहीं करना पडता इसमे परिश्रम की ही को उत्तेजन भी है । कोई आदमी शक्तिशाली और मुख्यता है । दूसरी बात यह है कि विद्वान या क्रूर है तो हमे उसकी पूजा न करना चाहिये कलावान अपनी आजीविका के लिये यद्यपि कुछ बल्कि निन्दा और दमन करना चाहिये या उसे लेता अवश्य है पर आजीविका चलने के बाद वह प्रेम आर सवा का पाठ पढाना चाहिये । धार्मिक विद्या कला का उपयोग प्रायः आर्थिक बदले के बिना क्षेत्र मे जो अन्धविश्वास और मूढता प्रविष्ट हो भी करता है । इसलिये धनसग्रह के साथ विद्या आदि गई है वह जाना चाहिये । की तुलना नहीं की जा सकती । हा, धनीका आदर सामाजिक क्षेत्र में भी यही बात होना चाहिये। न करने पर भी दानी का आदर करना चाहिये । हम जिस चीज की पूजा आदर सत्कार करेंगे धन के हाथ मे लोगो के विविध स्वार्थ और जिसको महान समझेगे लोग उसी को अधिक बढाने आशाएँ रहती है इसलिये धनियो को असली नहीं की चेष्टा करेगे। अगर आप सदाचार और जनतो नकली प्रेम आदर तथा चापलूसी मिला ही सेवा की अपेक्षा धन वैभव शक्ति अधिकार के करती है पर लोगो का यह पतन भी यथा- सामने अधिक भुकते है तब यह स्वाभाविक है कि शक्य कम हो ऐसा वातावरण निर्माण होना चाहिये। लोग सदाचारी बनने और जनसेवा की उपेक्षा इस विषय मे यह सन्देश लोगो को नैतिक तथा करके धन वैभव अधिकार आदि के लिये प्रयत्न शास्त्रीय आवार का काम देगा। करे । मनुष्य समाज स्वर्ग और वैकुण्ठ की तरफ
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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