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________________ ५८ ] निरतिवाद चाहता है और इस कार्य मे सरकार से भी यथा- पभोग के सुभीते इच्छानुसार मिल ही जाते है योग्य सहयोग चाहता है इसके अतिरिक्त लोगो पैसो के द्वारा नौकर चाकर तथा उनके द्वारा को यह भी सिखाना चाहता है कि किसी को सन्मान मिल ही जाता है अब अगर साथ मे साधु मानने के लिये निम्नलिखित बातो का जनता मे पूजा सत्कार आदर आदि भी मिले विचार करो। सज्जनता की छाप भी मिले, तब लोग धन को ही १-वह पूर्ण सदाचारी है। अपने जीवन का आदर्श क्यो न बनायेगे ? और २-समाज से लेकर अपने लिये धनसग्रह वे धन के आगे ईमानदारी तथा जनहित की नहीं करता। पर्वाह क्यो करेगे ? ३-समाज से जितना लेता है उससे यह निश्चित है कि कोई आदमी ईमानदारी अविक समाज की भलाई करता है। से अधिक धन सग्रह नहीं कर सकता । यह ४-जातिपॉति का पक्षपाती नहीं है और दूसरी बात है कि वह कानूनी अपराध न करे इस न सम्प्रदायो मे द्वेप फैलाता है। प्रकार वाहिरी दृष्टि से वह ईमानदार बना रहे पर ५-लोकसेवा और साध जीवन बिताने की धर्म का जो मर्म है ईमानदारी का जो प्राण है उसको समझदारी रखता है। नष्ट किये बिना अधिक धनसञ्चय नही होसकता। ___ सन्दश बीसवाँ जो लोग बाप दादो के वन से धनवान होते है - धनवान होने से ही कोई भला आदमी या उनमे यह दोप कदाचित न हो पर उनके आदरणीय न समझा जाय । अगर उसने धन बाप दादो मे अवश्य था । तब एक दोपी की ईमानदारी से पाया है और सभ्य है तो भला सन्तान होने से ही किसी का आदर क्यो होना चाहिये? आदमी समझा जाय । अगर उसने वन समाज हित के काम में लगाया है तो आदरणीय समझा अगर हम चाहते है कि लोग वन के लिये जाय । बेईमानी न करे धन को ही अपने जीवन का भाष्य-हरएक धर्म ने धनसग्रह की निन्दा की ध्येय न बनाये तो यह आवश्यक है कि धन का है और जनता भी इस निन्दाका विरोध शब्दो सन्मान करना छोड दिया जाय । अमेरिका की से नही करती। यह निन्दा उचित भी है पर लोगो कुछ प्राचीन जातियो मे अभी भी यह रिवाज है की दृष्टि और लोगो का व्यवहार बिलकुल उल्टा कि कोई आदमी हजार का दान करने से हजारहै । किसी मनुष्य ने किसी तरह धन एकत्रित कर पति की इज्जत पाता है हजार रुपया रखने से लिया तो वह कैसा भी हो और जनसेवा भी न नही । लोकमत जब तक धन के विषय मे विशुद्ध करता हो पर आदर इजत और भलापन उसे मिल न हो जायगा तब तक बढती हुई भौतिकता दूर जाता है । कम से कम वह साधारण गृहस्थसे नही हो सकती । वहुत ऊचा हो जाता है । अगर हम धन के अन्ध- धनवान का अगर आदर करना है तो पहिले प्रशसक या अन्धपूजक बन जॉय तो लोग अन्य से मत करो उसका सदुपयोग देखकर करो । लोकगुणो की अपेक्षा वन पर ही टूटेगे। वन से भोगो- मत अगर इस प्रकार सुधरजायगा तो धनवाला
SR No.010828
Book TitleNirtivad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatya Sandesh Karyalay
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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