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________________ गुरगाण वण्णो । उत्तमवरतव-विसिद्धणाण-जोगजुत्ताणं जह य जगहियं भगवनो जारिसा य रिद्विविसेसा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउभावा य जिणसमीवं, जह य उवासति जिणवरं, जह य परिकहेंति घम्मं लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं, सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अन्नवेति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं, जह वहणि वासाणि अणुचरित्ता पाराहिय-नाण-दंसरण - चरित्तजोगा जिरणवयणमणगय महियभासिया जिणवराण हियएणमणुरोत्ता, जे य जहिं जत्तियाणि भत्तारिण छैयइत्ता लद्धण य समाहिमुत्तं झाणजोगजुत्ता उववण्णा मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्य विसयसोक्खं, तत्तो य चुया कमेणं काहिति संजया जह य अंतकिरियं । अनगार महषि, उत्तम, श्रेष्ठ तप वाले तथा विशिष्ट ज्ञान-योग मे युक्त हैं, उनका वर्णन किया गया है। इसमें जैसे भगवान् महावीर का शासन जगत् के लिए हितकर है, देव-असुर और मनुष्य - परिपदों के जिस प्रकार के ऋद्धि-विशेष तथा जिनेश्वर के समीप प्रादुर्भाव होता है, जिस प्रकार वे जिनवर की उपासना करते हैं, जिस प्रकार लोकगुरु देव, नर और असुरों के गणों में धर्म-प्रवचन देते हैं, जिस प्रकार भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म सुनकर अवशेप कर्म वाले, विषयों से विरक्त मनुष्य अनेक प्रकार के संयम और तपरूपी उदार धर्म को स्वीकार करते हैं, जिस प्रकार वे वहुत वर्षों तक तप और संयम का अनुचरण कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और योग की आराधना करते हैं, अनुगत और पूजित जिनवचन का निरूपण कर जिनवर को हृदय में स्वीकार कर जो जहां जितने भक्तों/भोजन-समयों का छेदन कर, उत्तम-समाधि पाकर, ध्यान-योग-युक्त जिस प्रकार उत्तम मुनिवर अनुत्तर विमानों में अनुतर विषय सुखों को प्राप्त करते हैं, वहां से च्युत होकर, क्रमशः संयत वन कर जिस प्रकार अन्तक्रिया करते हैं उनका आल्यान किया गया है। समवाय-सुत्त २३७ समवाय-द्वादशांग
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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