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________________ चोवत्तरिमो समवायो १. थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोव तरि वासाई सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिरिण व्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे । २. निसहाओ णं पासहरपत्वयानो तिगिछिदहापो सीतोतामहानदी चोवतरि जोयणसयाइं साहियाई उत्तराहुत्ति पवहिता वतिरामतियोए जिभियाए चउजोयणायामाए पण्णासजोयणविक्खमाए वइरतले कुंडे मया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहार संठाणसंठिएण पवाएणं महया सद्देणं पवडइ। ३. एवं सीतावि दक्खिणहुत्ति भणि- चौहत्तरवां समवाय १. स्थविर गणधर अग्निभूति चौहत्तर वर्प की सर्वायु पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत तथा सर्व दुःखरहित हुए। २. निषध वर्षघर पर्वत के तिगिछिद्रह से शीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन उत्तरमुखी वह कर चार योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी वज्रमय जिह्वा से महान् घटमुख से प्रवर्तित,मुक्तावलिहार के संस्थान से संस्थित प्रपात से महान् शब्द करती हुई वञतल कुण्ड में गिरती है। ३. इसी प्रकार शीता भी दक्षिणमुखी कथित है। यस्वा । । ४. चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोव तरि निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ४.चाथी पृथिवी को छोड़कर शेष छह पृथिवियों में चौहत्तर शत-सहस्र लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। ___ समवाय-नुत्तं समवाय-सुत्तं १७२ ' समंवाय-७४. .
SR No.010827
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages322
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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