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________________ ( २३ ) में या योग्यता प्राप्त होने पर श्राचार्य की आज्ञा से एकाको भी 'विचरते हैं, क्रोध,मान, माया, लोभ मादि फपाएँ जिन के पास नहीं पाती, जो राग द्वाप से रहित है, किसी से जान पहिचान नहीं रखते, शरीर भोग व जग से विरक्त. अयाचक वृत्ति वाले पात्मनानी ही जैन साधु गुरू हो सकते हैं। इनके अतिरिक्त जो वन भेपो हैं, चाहे च नम हो या वनादि धारी हों, कभी साधु व गुरू नहीं हो सकते । आज कल अनेकों स्वपरचनक लोग नाना प्रकार के भेष बना कर व आप को साधु बता कर संसार को तो ठगते ही हैं, परन्तु वे अपने आत्मा को भी अनन्त भवसागर में दुबा देते है। कोई नग्न मुद्रा धारण कर पीछी कमण्डलु लेकर अपने को दिगम्बर साधु मानते हैं, परन्तु साथ में नौकर, चाकर, चपरासी रखते हैं, लोगों से चन्दा कराते हैं, अपने नाम ही संस्थाएँ खोलते हैं, अपने साथ बहुत से गृहस्थों को लिए हुए डोलते हैं, साथ में गाड़ियों में चौके रखते हैं और जहाँ तहाँ ठहर कर भोजन बनवा कर जीमते हैं. रेलों व मोटरों में भी चलते हैं, यन्त्र, मन्त्रः तन्त्र करते हैं, क्रोध करके गाली गलौज करते है, नमस्कारादि न करने पर रुष्ट हो जाते हैं, घास के भीतर घुस कर मकानों के अन्दर सोते हैं, चटाइयां रखते हैं, दौर छपाते हैं, अपना प्रोग्राम निश्चित करके पहिले से प्रगट कर देते हैं, लोगों के आमन्त्रण पर नियत तिथि पर पहुँचते हैं, पात्रापात्र देखे बिना चाहे जिसे मुनि अर्जिकाएल्लिक, जुल्लक, ब्रह्मचारी, त्यागी आदि यना डालते हैं। जो फिर भृष्ट होकर सन्मार्ग में देोप लगाते व भृष्ट होजाते हैं। जिन्हें वर्णमाला का शुद्ध उच्चारण करना भी नहीं आता, वे भी मुनि बन "जाते हैं, केशलोंच का मेला भरवाते हैं, केशलोंच तथा पीली
SR No.010823
Book TitleSubodhi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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