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________________ तीसरे पहर रात्रि को केवल खेद व प्रमादादि दूर करने के लिए ही भूमि पर शरीर को संवरण करके एक करबट से अल्प समय (प्रमाद दूर होने मात्र) शयन करते हैं, शेष समय बैठे हुए या खड़े खड़े ध्यान अध्ययनादि करते हैं और रात्रि में व अन्धेरे प्रदेशों में कभी गमनागमन नहीं करते। यदि चलना होता है, तो दो घड़ी सूर्य चढ़ने के समय से दो घड़ी अस्त होने से पहिले पहिले सन्ध्या समय को छोड़ कर ही मौन से गमन करते हैं। शेष समय में स्थिर रहते हैं और दैव (कमो क्ष्य ) कृत या देव मनुष्य पशु पक्षी कीट पतङ्गादि चेतन या अचेतन पदार्थों द्वारा प्राप्त हुए उपसर्ग [ उपद्रव ] तथा परीपहों [ भूख प्यास. शीत, उष्णादि कष्टों ] को सम भावों से सहते हैं, उन पर विजय प्राप्त करते हैं, परन्तु कष्ट के भय से कायर होकर स्थान नहीं छोड़ते हैं, किन्तु, सच्चे अहिंसक वीर बनकर स्थिर हो जाते हैं। जो दिवस में सन्ध्या काल को छोड़ कर दोपहर [ मध्यान्ह ] से पहिले या पीछे केवल १ बार ही भोजन के लिए निकलते हैं और अपर एषणा समिति में बताई हुई विधि के अनुसार यदि भोजन की विधि मिल गई तो ले लेते हैं, अन्यथा समभाव धारण करके पीछे सङ्घ में या एकान्न बनादि निर्जन स्थान , में जाकर स्वाध्यायादि में संलम हो जाते हैं, जो विधि मिल जाने पर भोजन लेते हैं, सो भी खड़े खड़े अपने हाथ में गृहस्थों के द्वारा दिया हुआ बिना आंख मुख हस्तादि के इशारे के, मौन सहित रूखा सूखा, सरस नीरस, कैसा ही हो, परन्तु शुद्ध हो, प्रासुक हो और त्यांगा हुमा न हो, ऐसा भोजन अल्प मात्रा में अर्थात् जितने से शरीर में ध्यान अध्ययन तथा आवश्यक पालन प श्रादि सांधन करने योग्य शक्ति तो रहे, परन्तु प्रमादादि दो
SR No.010823
Book TitleSubodhi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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