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________________ भगवती के अंग में से कोई चीज फेंकी और किसी रास्तागीर पर पड़ी अथवा गाड़ी आदि चढ़ाने में ऐसी लापर्बाही की कि किसी प्राणी को चोट पहुंची यह प्रादजातद्यपि एक तरह का तक्षक है पर अम्पमात्रा में है, तक्षक और इसकी भावना में इतना अन्तर है कि इसे अलग ही कहना ठीक है। हां, या भाग्य की तरह यह निर्दोष नहीं है। इसका करनेवाला अमुक अंश में अपराधी है, भले ही वह तक्षक के बराबर अप रात्री न हो । १० अविवेकानन्द के वश में होकर मनुष्य जो प्राणिघात करता है वह अधिवेशनात है । जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पशुबलि करना आदि। अविवेकज धात का विशेष रूप वर्धकत के प्रकरण में भा गया है । - ११ चाधकघात स्वार्थवश अपना दोष ढँकने के लिये, दण्ड या प्रायश्चित से बचने के लिये, आत्मघात करना है। जैसे अपराधी सिद्ध होने पर दण्ड या बदनामी से बचने के लिये अपना सिर पीटने लगना, अपने को गाली देने लगना आदि। जहां कुछ निकटता का व्यवहार होता है प्रायः वहां ऐसा घात हुआ करता है। एक कुटुम्ब में रिश्तेदारों में, किसी संस्था में, पड़ोसियों में अचया साधारण परिचितों में विरोध या झगड़ा होने पर लोग इस तरह का बाधक घात करने लगते हैं । इसी उद्देश्य को लेकर कोई कोई लोग आत्महत्या ( अपना जीवनघात) भी कर जाते हैं। बाधक त एक तरह के सीन का परिणाम है यह एक तरह का भयंकर न्यायविद्रोह [ २९८ जगत की दुर्दशा इन बाधक म्याय में बाधक है, चोर जैसी दुर्व्यवस्था होगी वैसी घातकों से होती है क्योंकि ये होते हैं । पूनम में भी दूसरों के लिये अपना घात किया जाता है और में भी यही किया जाता है, फिर दोनों में अन्तर क्या रहा ! उत्तर- साधकान में घातक का पक्ष न्याययुक्त होता है और अन्य साधक दूसरों का अन्याय दूर करना चाहता है, सुधार करना चाहता है और बाधक अपने अन्याय का दमन नही होने देना चाहता । साधक में विनय और सुहै, बाधक में अकार, छड, कोन और उदण्डता है। साधक अन्यायको नम्रता से नष्ट करना चाहता है, बावक अपने अन्याय को उत्तेजन देना चाहता है और फिर भी दूसरों की समानुभूति पाने की ता करना चाहता है। एक आचार्य अपने शिष्यों की का प्रायश्चित्त खुद करता है इसलिये वह रस का व्यागकर रूक्षभोजन करने लगता है यह सापक है, एक शिष्य कोई गलती करता है या झूठ बोलता है और जब उसका यह दोष बत या जाता है तब क्रोध में आकर खाना बन्द कर देता है और कोई कष्ट उठाने लगता है जिससे दूसरे लोग उसे दोषी न समझे, उसे प्रायश्चित या दंड न उठाना पड़े तो यह बाधक है। यहाँ इस वञ्चक शिष्य और जमीन आसमान का तपस्वी आचार्य में अन्तर है।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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