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________________ २९७ सत्यामृत ६ भ्रमज-प्रयत्न तो वर्धन या रक्षण का घात हो या न हो जगत में नहीं है जिसके किया जाता हो पर धोखे से हो जाय तक्षण, तो आधार से जीवन टिक सके, तीसरे वनस्पति का इसे भ्रमज घात कहेंगे । जैसे धोखे से गलत घात पशुपक्षी आदि के घात के समान नहीं दवा दे दी जाय, रोग का निदान ठीक न होने - हाता, वनस्पति की शाग्वा आदि काटने पर दूसरा से दवा कुछ की कुछ हो जाय , इसमें घातक शाखाएँ आजाती हैं बल्कि कभी कभी शाखा कुछ न कुछ भल कर जाता है इसलिये यह वगैरह काटना जरूरी हो जाता है, न काटा तो भ्रमज घात है । तक्षकघात इसलिये नहीं है कि झाड मुरझा जाता है नष्ट भी हो जाता है जैसे क का भाव तथा प्रयत्न वन या रक्षण के गुट ब आदि है। लिये होता है। इन तीनों कारणों से व्यवहार पंचक में __ ७ आरम्भज- व्यापार धंधा तथा घरू कामों वनस्पतेि का विचार नहीं किया जा सकता, हां, में जो प्राणिघात हो जाता है उसे आरम्भजघात अनावश्यक घात वनस्पति का भी नहीं होना कहते हैं। आरम्भजघात में संकल्पपूर्वक पाणि- चाहिये। घात नहीं किया जाता पर हो जाता है । जैसे साधारणतः वनस्पति का तक्षक घात भी आरखती में या रोटी आदि बनाने में। म्भज सम्झना चाहिये। उद्योग के नाम पर मछली पकड़ना या स्वाशक-अपने रक्षण के लिये या पशुवध करना आरम्भज घात नहीं है क्योंकि अपने तक्षण भक्षण की सम्भावना हा तो उसने इसमें प्राणिवध का संकल्प होता है जब कि बचने के लिये घात करना स्वरक्षक घात है । आरम्भ में प्रणिवर का संकल्प नहीं होता। जैसे रास्ते में पड़नेवाले जंगल में शेर रहता है ___ हल चलाते समय कोई बड़ासा प्राणी मर वह मिलने पर निरपराध ही घात कर सकता है जाय तो यह आरम्भज घात ही होगा जब कि तो उसका घात करके रास्ता साफ करना स्वरक्षक चुनचुन कर छोटे कीड़ों को खाना भक्षक घात घत है। इसी प्रकार मच्छर आदि का घात भी होगा। स्वरक्षक घात है। प्रश्न-अनाज के पौधों के साथ जो दूसरे सम्पर्क में आते ही घात करने का जिन पौधे उगते है जो अन्नके पौधों को नुकसान का स्वभाव है, जैसे बिच्छू, थोड़ा सा निमित्त पहुंचाते हैं उनका घात तो संकल्पपूर्वक किया मिलते ही तीन घात करना जिनका स्वभाव है, जाता है उसे आरम्भन घात कैसे कह सकते है ! जैसे सर्प, या भक्षण के लिये घात करना जिन उत्तर-बह एक तरह का स्वरक्षकघात है। का स्वभाव है जैसे शर, ऐसे प्राणियों से अपनी यह एक बात और ध्यान में रखना चाहिये रक्षा करने के लिये पहिले से सतर्क होना पड़ता कि वनस्पति का तक्षक भक्षक घात भी क्षन्तव्य है इस प्रयत्न में उनका घात करना पड़े तो यह है। क्योकि एक तो मनुष्यादि की अपेक्षा बन- खरक्षकघात होगा । सनि की चतन्यमात्रा बहुत कम है, दूसरे वन- ९पमादज-प्रमादज घात वह है जो भाति के सिवाय और कोई पदार्थ जिम में कम लापर्वाही से हो जाता है जैसे बिना देखे खिड़की
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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