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________________ २९१ ] सत्यामृत पर मनुष्य का वश ही नहीं है इसलिये इनका सफाई की जरूरत रह जाती है इसलिये ये पापपुण्य के कर्तृत्व से कोई सम्बन्ध नहीं। यहां तेरह भेद किये गये हैं। अगर इन पांच भेदों में तोह तो सिर्फ इसलिये इनका उल्लेख किया गया है कि का समावेश करना हो तो इस तरह होगा । विश्वव्यापी घात को देखकर भगवती की साधना स्वाभाबिकी--सहज, भाग्यज, नमज । को कोई असम्भव न समझ बैठे इसलिये इन घातों के विषय में कुछ निर्णय कर दिया जाय । आत्मरक्षिणी- न्यायरक्षक, स्वरक्षक वर्धक आरम्भज और स्वरक्षक पर मनुष्य का वश तो पररक्षिणी- साधक, वर्धक, न्यायरक्षक । है पर पूरा नहीं, इसलिये इनके विषय में यथा- आरम्भजा----आरम्भन, स्वरक्षक । शक्य यत्नाचार किया जा मकता है। जहां तक संकल्पजा-प्रमादज, अविवेकज, बाधक यत्नाचार है वहां तक ये क्षन्तव्य हैं। प्रमादज तक्षक, भक्षक। अविवेकज बाधक तक्षक और भक्षक अवश्य पाप ___यहां भी कोई कोई भेद अपन फैल अनुहैं और उत्तरोचर अधिक पाप हैं। इस प्रकार ___सार अनेक भेदों में चले गये हैं। साधारणतः तेरह तरह के धानों का निर्णय हो जाता है। १ साधक- भगवती की प्रबोधनी साधना ___व्यवहार-पंचक में ये भेद इस प्रकार शामिल के लिये अपने को या आत्मीय जन को जो कष्ट किये जायेंगे। दिया जाता है वह साधक घत है । यद्यपि यह वर्धन-साधक, वर्धक, आरम्भज । वर्धक और न्यायरक्षक में शामिल हो जाता है रक्षण-साधक, न्यायरक्षक, आरम्भज, फिर भी इसमें दूसरों के घात के लिये स्थान नहीं है और व्यवहार में भी इस का साधनापन स्वरक्षक। विनिमय-स्वरक्षक, आरम्मन स्पष्ट है इसलिये इस को अलग भेद बनाया है। तक्षण नक्षक, प्रमादज, अभियान वर्धन या रक्षण के लिये जहाँ संहार कार्य कारी नहीं होता वहाँ उदाराशय संयमी जन भक्षण--भक्षक, प्रमाद ज, अविवेकज। साधक घात करके कल्याण करते हैं या अकल्याण सहज, भाग्यज और भ्रमज व्यवहार पंचक से बचते हैं कुछ उदाहरणों से यह बात साफ के विषय नहीं है। हो जायगी। कोई कोई भेद अपने फल के अनुसार दो एक आचार्य के किसी शिष्य ने अपराध दो भेदों में चले गये है। लिया और झूठ बोला, आचार्य ने समझ लिया दूसरी जगह ( कृष्णगन में हिंसा के कि यह झूठ बोलरहा है पर शिष्य किसी भी पांच भेद किये गये है १ स्वाभाविकी, २ आत्म- तरह झठ को स्वीकार नहीं करता । तब आचार्य रक्षिणी ३ पररक्षिी ४ आरम्भजा ५ संकल्पना। अपने को ही धिक्कार देते हैं कि मुझ में ही हिमा-अहिंसा (धान-अबात ) को समझने कोई दोष है तभी तो तुम मेरे सामने झूठ बोल में इनसे भी काम चल जाता है फिर भी कुछ सकते हो या अपराध कर सकते हो, इस प्रकार
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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