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________________ भगवती के अंग न होगी, अनुचित स्वार्थ के लिय या दोषों को प्रगट करना निंदा है ! किया जायगा तो हिंसा होगी , इस यह प्रायः परोक्ष में की जाती है ! सुधार की प्रकार पीछे उमका विश्लेषण हो जायगा परन्तु दृष्टि से सच्चे दोषों का उल्लेख किया जाय तो इसे अभी तो यहां मनघात का विचार करना है। निंदा नई। कहने ! द्वेषबुद्धि से किसी भी तरह भयदान के नाना रूप है पर संक्षेप में के दाप का उल्लेख किया जाय तो यह निंदा है ! उसके दो रूप हैं- वचन स भयदान और तन तिरस्कार फि शब्दोंमें ही नहीं होता किंतु से भयदान । मैं तुम्हें मार डागा, लूट लूंगा, स्वर से भी होता है मुलाकृति से भी होता है। बदनाम कर दूंगा, खाना बन्द कर दूंगा, कम्वा भावव्यक्त करने के नानामपर उन रूपों की भोजन दंगा, जकड़ दूंगा अथवा तुम यो हो कीमत मन के भावों में है। जाओगे त्यों हो जाओगे आदिबाने बोलकर, दिख र जब से है तभी से प्राणघात का या अन्य संकेत से कहना वचन से भयदान है। पाप है । अर्थघात और विश्वसन से प्राणघात ___ मारना नहीं, पर मारने के लिए हाथ उठाना का इतिहास लम्बा है। यद्यपि कीट पतंगों में मारने दौटना, दांत सन १ पास करने के भी अवघातलमयर पाया जाता है पर प्रधालिये की जानेवाली क्रियाओं का प्रदर्शन क.ना नता प्राणघात की है । ब्यापक भी प्राणघात है। तन से भयदान है। ___ दुसरी बात यह है कि अर्थात विश्वमय इस प्रकार के भय से प्राणी के मन को की अपेक्षा प्राणघान की क्षतिपूर्ति कठिन है। चोट पहुंचती है, उसे कष्ट होता है इसटिये इसलिये भी यह मुख्य पाप है। भयदान मनघात है। भगवती की साधना शीर्षक अध्याय में दसरा मनघात है तिरस्कार । तिरम् शब्द व्यवहार पंचक का जो विवेचन किया गया है का अर्थ है परोक्ष, ओट में आदि । इसलिये उसके अनुसार प्राणघात या अन्य घातों की तिरस्कार शब्द का अर्थ हुआ सामने से हटाने कर्तव्यता अमित का निर्णय करना उचित की, ओट में करने की या नीचे करने की है, घत हो जाने से ही कोई पाप नहीं कहकोशिश करना । लाता है। तिरस्कार के अनेक रूप हैं, जैसे अविनय घातके तेरह भेद हैं-१ साधक २ वर्धक अपमान, निंदा आदि। ३ न्यायरक्षक ४ सहज ५ भाग्य ज, ६ भ्रमज, सागतजिस प्राणी को अपनी ओक्षा ७ आरम्भज, ८ स्वरक्षक, ९ प्रमादज १० जो स्थान प्राप्त है उसने कम देना या न देना अविवेकज, ११ बाधक १२ तक्षक १३ भक्षक। या उसका यथोचित प्रदर्शन न करनः अविनय इन में साधक, वर्धक और सादर घात है ! अपमान भी अविनय का एक रूप है पर तो नानी, की साधना के अंग है इसलिये कुछ अधिक मात्रा में है ! किसी के वास्तविक कर्तव्य में शामिल हैं। सहज, भाग्यज और भ्रमज्ञ
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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