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________________ लोकसाधना [ २८० सत्याग्रही आनी कुर्बानी से लोगों के दिल पर भी निष्फल बनाया जाता है। जैसा कि म. पिघला देता है और पाप कार्य में बाधा डालता ईसा उपदेश किया करते थे। है। सत्याग्रही के मनमें द्वेष न होना चाहिये साथ ४ प्रेमदर्शनी-इसमें पापी के साथ ऐसी ही यह भी देखना चाहिये कि जिसके साथ सत्या " सहानुभूति दिखाई जाती है कि वह हमें अपना ग्रह का उपयोग किया जा रहा है उसके हृदय में मित्रा समझने लगे और हमारी सहानुभूति पाकर जाग्रत होने की योग्यता कितनी है ? जो तीव्र लज्जित हो जाय और पाप से विरक्त हो जाय । स्वार्थी या अत्यन्त निष्ठुर या असंस्कृत हैं उनके सामने सत्याग्रह का कोई उपयोग नहीं। ___ एक विश्वप्रेमी महोदय रात में सोरहे थे ३ रनली- दृद्धशान्ति और ___ इतने में चोर घुसा । इन्हें सोया जानकर घर का सामान लेकर उसकी पोटली बाँधी । [ इनकी निर्भयता से दूसरे के दिलपर यह छाप मारी जाय नींद खुल गई पर इनने कुछ कहा नहीं ] पोटली कि वह • अन्याय करके भी उसकी निष्फलता का अनुभव कर सके । जैसे किसी ने हमें इतनी बड़ी बंध गई थी कि चोर उसे उठाकर अपने सिर पर नहीं रख सकता था। चोर की एक तमाचा मारा और हमने दृसरा गाल आगे करके कहा-लीजिये एक तमाचा और मारिये ।। यह परेशानी जानकर वे खुद उठे और चोर के सिर पर पोटली रखवाने लगे। चोर घबराया मारने वाले ने तमाचा इसलिये मारा था कि पर इनने कहा घबराओ मत, मैं समझता हूं मेरी पिटनेवाला डर जायगा झुक जायगा । पर जब अपेक्षा तुम्हें इसकी ज़रूरत अधिक है इसलिये वह देखता है कि तमाचे ने तो इसमें भय की तुम लेजाओ, इस सहानुभूति और प्रेम को पाकर अपेक्षा निर्भयता को ही जगाया है तब तमाचे चोर के दिल का पाप भाग गया वह पैरों पर गिर की विफलता से वह हट जाता है। हो सकता पडा. क्षमा मांगी और सदाके लिये चोरी है कि वह दोचार तमाचे और मारे पर पिटनेवाले छोड़ दी। में अगर दृढ़ता बनी रहेगी तो अन्त में वह अपनी मनुष्य प्रेम का भूखा है। स्वार्थवश या विफलता समझ जायगा । जीवन की आवश्यकतावदा कभी उसे नीति का आग्रहिणी-साधना में एक अन्याय को भंग करना पड़ता है पर इतना तो वह चाहता विफल बनाने के लिये दूसरे अन्याय निर्भयता से ही है कि मैं उन्हें न सताऊं जो मुझसे प्रेम सहे जाते हैं और मूल अन्याय को रोकने की करते हों, और जब अपरिचित आदमी उसके कोशिश की जाती है । जैसी कि प्रह्लाद ने की पाप को भूलकर उससे प्रेम करने लगता है तब थी। ईश्वर के नाम लेने का प्रतिबन्ध दूर करने वह समझने लगता है कि जगत् में मुझ सरीखे के लिये प्रह्लाद ने सब कष्ट सहे पर पिता की पापी से भी प्रेम करनेवाले हैं और मैं ऐसे प्रेमियों अनुचित आज्ञा न मानी। को सताता हूं यह कितना बड़ा अन्याय है ? वैफल्य-दर्शनी में अन्याय की घटना को प्राणी बल और धनकी उपेक्षा जितनी बंद नहीं किया जाता किन्तु उसे हो जाने देने जल्दी कर सकता है उतनी जल्दी प्रेम की
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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