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________________ २८१ ] उपेक्षा नहीं कर सकता । प्रेमी लोक पापक्रिया को जबर्दस्ती रोकती है । इस साधना साधना का मूल इसी में है । का उपयोग तभी करना चाहिये जब पाप दूर करने का कोई और मार्ग न रह जाय या दूसरे मार्ग से पर्याप्त सफलता मिलने की आशा न हो । मत्यामृत ५ उपेक्षणी में पापी पर ऐसी बताई जाती है कि वह पाप की निष्फ लता समझ सके । बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि 'अगर उनसे डरो या लड़ो तो उनका पाप और भी बढ़ता है यहां तक कि उनकी तरफ किसी भी तरह का ध्यान दो तो वे अपने पाप की सफलता समझकर उसी मार्ग में और बढ़ते हैं उनके विषय * उपेक्षणी दो साल का प्रयोग करना उचित है। म. महावीर के जीवन में और उनके सच्चे अनुयायी साधुओं के जीवन में इस सा के विशेष दर्शन होते हैं । । ६ शिक्षणीक साधना में जगत को या पापी को पाप का दुष्फल समझाया जाता है भगवती की सेवा में ही विश्व का और तेरा हित है इस तरह का उपदेश इस तरह से उसे दिया जाता है कि वह पाप अन्याय आदि से विरक्त हो जाता है । जो लोग पाप के विरोध के लिये सरकारक साहिल - निर्माण करते हैं उपदेश आदि देते हैं वे साधना करते हैं । पर इस साधना के लिये यह आवश्यक है कि जो कुछ कहा जाय, अपना जीवन उसके अनुरूप 1 चीन उपदेशों का या लेखनों का कोई मूल्य नहीं। वह तो फोनोग्राफ की तरह बजना है। ७ महारणी या पाप को दूर करने के लिये अन्यायी या पापी को दंड देना संहारिणी लोक साधना है । जैसा कि म. राम ने रावण को दिया था । प्रबोधन कन्सना साधारणतः प्राणी को संयम की ओर काती है जब कि संहारिणी भगवती की इन सातों नावनओं के विषय में दो बातों का खयाल रखना चाहिये। पहिली बात तो यह है कि साधनाएँ वहाँ निष्फल हो जाती है जहाँ साधक पात्रापात्र का विवेक भूल जाता है। प्रबोधिनी की जगह संहारिणी और संहारिणी की जगह प्रबोधिनी का उपयोग करने से साधना निष्फल जायगी और कभी कभी दुष्फल हो जायगी । दूसरी बात यह है कि लोक- मु.धना कोई भी हो उसके मूल में वीरता होना आवश्यक है । खास कर प्रबोधिनी में इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये। अगर हम अपनी कष्टसहिष्णुता से अन्यायी को पाप से रोक भी दें पर उसके मनमें पश्चात्ताप पैदा न हो सिर्फ दया पैदा हो तो प्रबोधिनी लेोकसाधना को सफल नहीं कह सकते । मानलो 'क' राष्ट्र के ऊपर 'ख' राष्ट्र का शासन चलता है, 'क' राष्ट्र स्वशासन चाहता है। इसलिये वह आग्रहिणी याचना के द्वारा 'ख' राष्ट्र को पाप से दूर हटाना चाहता है। 'क' राष्ट्र के अडंगों से कुछ परेशान होकर और कुछ दया से प्रेरित होकर 'ख' राष्ट्र 'क' राष्ट्र को कुछ अधिकार दे देता है उसे अपने अन्याय का पश्चात्ताप नहीं होता, तो यह प्रबोधिनी न हुई। क्योंकि 'ख' को इससे कुछ प्रबोध तो मिला ही नहीं उसने अपनी भूल तो समझी ही नहीं ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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