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________________ २७२ ] सत्यामृत में भी पूर्ण हैं। एक बार राजा ने एक विद्यार्थी की भूख से मरे जाते हैं जबकि ये भूखे रहने को कुछ मिठाई देना चाही पर उसने कहा- पर भी वितृष्ण हैं - तृप्त हैं ! जो कुछ देना हो गुरुदेव या माताजी के पास राजा ने महर्षि की वंदना करके कहाभेज दीजिये मुझे आप से कुछ नहीं चाहिये । गुरुदेव, मैं राज्य नहीं चाहता आपकी शिष्यता विद्यार्थी का यह अनर्ग,स्व से भरा हुआ उत्तर चाहता हूँ, मुझे भी आश्रम में थोड़ी सी जगह सुनकर राजा चकित हो गया। साचने लगा- दे दीजिये। में भरा होकर भी अधूरा हूँ, ये खाली होकर भी महर्षि ने कहा-तुम्हारे यहां आ जाने से पूरे हैं। मैं सुखी हूँ या ये! तुम्हारी जगह किसी को राजा बनना ही पड़ेगा, दूसरे दिन राजा चन्दा गया । पर अगले तब तुम्हारी तरह वह भी तृष्णा की आग में पड़ाव पर पहुँचकर पता लगा कि रानी का हार जलेगा । इसकी अपेक्षा यह अच्छा है कि तुम आश्रम की नदी के किनारे रह गया है । हार राजा बने रहो और अपनी वितृष्णता से दूसरों बड़ा कीमती था। हलहल मचाई । दने को को भी वितृष्ण बनाओ! किसे भेजा जाय ! जिसे भेजा जाय कदाचित् राजा के जीवन में जो परिवर्तन हुआ उस बहा हार का छिपाल, इसालय राजाराना सहित का असर राजकर्मचारियों पर ही नहीं सारी प्रजा सब लोग आश्रम लौटे । चुपचाप ढुंढाई शुरू हुई पर पर पड़ा । लोग कहने लगे सतयुग आ गया है । हार न मिला। अन्त में राजा ने महर्षि से कहा। महर्षि की जो जो चीजें गमी आदर्शदर्शनी लोकसाधना ऐसी ही होती है ! सब उस झोपड़ी में रक्खी हैं । जाकर देखा तो २ आग्रहिणी-पाप अन्याय अत्याचार के यहाँ हार था, सोने का एक आभूषण और था। मार्ग में इस प्रकार अड़जाना जिससे पापी को एक दासी तांबूल भूल गई थी वह भी रक्खा था। पाप करना कठिन हो जाय । अगर वह हमें मार एक का नारियल रह गया था वह भी वहां कर पाप कर भी ले तो उसके अन्तस्तल में ऐसा पर मिला। लवंग, इलायची, सुपारी के टकडे दंश होता रहे कि वह पाप का मार्ग सदा के तक वहां मिले । आश्रम का ऐसा नियम था कि लिये छोड़ दे । इसे सत्याग्रह भी कहते हैं। गुरुदेव या माताजी की आज्ञा के बिना वहां राजस्थान की एक ऐतिहासिक घटना है कोई भी किसी चीज का उपयोग न करता था। कि दो भाई, जो राजकुमार थे, थोड़ी सी बात भूली हुई चीजे एक जगह इकट्टी रख दी जाती को लेकर अहंकारवश लड़पड़े, घर के एक पुराने थीं। राजा ने सोचा मेरे एक नौकर का जितना वृद्ध ब्राह्मण ने दोनों को रोका पर न माने । दोनों खर्च है उतने ही खर्च में इस सारे आश्रम का ने तलवारें निकाल ली, लड़ाई को रोकने के लिये काम चलता है, पर हम सब भूखे है लेकिन ये ब्राम्हण बीच में खड़ा हो गया पर दोनों के हाथ सब तृप्त है । अगर मेरे राजमहल में हार तो छूट चुके थे, ब्राह्मग घायल होकर चल क्या एक कौड़ी भी गमी होती तो क्या कभी बसा पर अपने खून से दोनों के दिल साफ़ पता लगता ! हम दुनिया को लूट कर भी तृष्णा कर गया।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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