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________________ लोकभवना से जगत की पैसे रक्षा करना जरूरी हो जायगा । इस के मूल अर्थात् मनसाधना और आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त उसे तपस्वी होना भी जरूरी है, तपस्वी हुए बिना कोई नहीं कर सकता है। उसके पहले अपने से तपस्याओं का वर्णन करने के पहिले क साधना के नाना रूपों पर प्रकाश डालना उचित है, इसलिये पहिले उन्हीं का वर्णन किया है I जाता लोकाना दो तरह की होती है एक प्रबोधनी दुसरी संहारिणी । प्रबोधनी साधना में लोगों के दिल पर ऐसी छाप मारी जाती है जिस से उनका दिल बदल जाये और पाप से विरक्त हो जाये । मनुष्य को ऐसा बोध या शिक्षण दिया जाय जिससे उसके मन में बैठी हुई पशुता निकल जाय, कम हो जाय, यह प्रबोधनी लोकसाधना है । महारिणी लोकाना में पापी को दण्ड देकर पाप-ताप से दुनिया की रक्षा की जाती है । प्रबोधन के छः भेद है । १. आदी दर्शन. २. आग्रहिणी, ३. वैफल्यदर्शनी, ४. ५. उपेक्षणी और ६. शिक्षणी । १ - आदर्श दर्शनी - अपना जीवन ऐसा निष्पाप बनाकर जगत के सामने रक्खा जाय कि उसे देखकर लोग धार्मिक जीवन की ओर आकर्षित होने लगे। अगर हमारे जीवन में सेवाप्रियता, समभाव आदि गुण हो तो इन्हें देख कर दूसरों में भी इन गुणों को अपनाने की म होती है। पर एक बात यह भी है कि इन गुणों के साथ प्रसन्न रहना आवश्यक है । [ २७८ इन गुणों को अपनाने से सम्भव है गरीब ही रहना पड़े, सम्भवतः पूजा, यश, आदर, पद आदि न मिले तो भी हमारा जीवन सुखी है सन्तुष्ट है तो हमारे जीवन को देखकर दूसरे लोग आकर्षित हो सकते हैं और हमारे पवित्र जीवन का अनुकरण कर सकते है इससे भगवती की रोकसाधना हो सकती है। सदाचारी त्यागी मनुष्य का जीवन अगर दु:खी हो तो लोग उस पर दया तो कर सकते हैं पर अनुकरण नहीं कर सकते, ऐसी हालत में यह भगवती की कसाना नहीं कही जा सकती। हां, अमुक अंश में वाचकही जा सकती है। सदाचारी और सुखी जीवन से किस प्रकार होती है, इसका महर्षि सात्यकि का जीवन है। महर्षि सात्यकि विन्ध्याचल की तलहटी में एक आश्रम बनाकर रहते थे। पास में छोटी सी नदी थी, कुछ ज़मीन थी, कुछ गायें थी— इसीसे उनकी और उनके विद्यार्थियों की गुजर होती थी । यद्यपि काफी गरीबी थी, कभी कन्द खाकर रहने की भी नौबत आ जाती थी। फिर भी सब ग्वूत्र प्रसन्नता रहते थे। खुब मिहनत करना सबकी सेवा करना, विनय ने रहना, इस प्रकार पन और संयमोपार्जन करते थे । एक बार बनारस का राजा विक्रमदेव अपनी रानी और कुछ सेवकों के साथ वनक्रीड़ा करता हुआ वहां से निकला और महर्षि सात्यकि के आश्रम में ठहरा | एक दिन ठहर कर ही राजा को समझ में आ गया कि आश्रमवामी बड़े गरीब है पर आश्चर्य यह है कि किसी के चेहरे पर दीनता नहीं है चना का भाव नहीं है - वे गरीबी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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