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________________ अक्रोध . [२७६ ने विरोध किया पर दूसरा न माना । उसने ऐसा चित्र वन गया कि यह कीलिमा उस चित्र मकान पर अपने नाम का पाटिया लगा दिया , का अंग वनकर शोभा बढ़ाने लयी। और भी सब कारबार हथयाने की कोशिश की इतिहास में भी अम्बपाली वेश्या का नाम पर कुछ दिन बाद उसके आश्चर्य का ठिकाना प्रसिद्ध है जिसने महमा बुद्ध के चरणों में सब न रहा जब मालिक और मालकिन अमावस्या सम्पत्ति अर्पित करके अपने जीवन को सफल की रात को घर में आये । पहिला मुनीम मालिक बनाया था और अमरता प. थी। और मालकिन को देखकर प्रसन्नता से नाच १०-दो पड़ोसी थे। अगर स्वभाव के अनुउठा । जब कि दुसरा अपने मालिक को भूत सार उनका नया नामकरण किया जाय तो एक समझकर घबराकर बेहोश हो गया। न्यायालय में का नाम होगा रुदन्तजी आँसवाल और दूसरे उसको बेईमानी की सजा दिलाई जाय इसके का हसन्नजी दिलखुश दोनों की आर्थिक और पहिले ही वह उस रात को र कर कोटबिक परिस्थिति एक सी थी पर जब कोई सदा के लिये पागल हो गया और एक दिन इसी रुदन्त भाई के पास आता तब वे अपना एक तरह डरो आवेग में कुएँ में कूदकर मर गा। न एक दुखड़ा रोया काते, कभी बिक्री कम हुई मालिक ने जो वसीयतनामा लिखा उसके अनु- कभी अमकने राम राम न की, कभी रोटी ठीक न सार उनके मरने के बाद आधी सम्पति हरिद्वार बनी की दस्त ठीक न हआ, कभी हाथ पर की संस्था को और आधी पहिले मुनीम को फुसी है, कभी धोबी अभी तक कपड़े न लाया, मिली । ईमानदारीसे एक का जीवन-चित्रा चमक इस प्रकार छोटे बड़े दो चार दुःखों का पुराण उठा और दूसरे का पुत गया। पढ़ने बैठ जाते, चाहते आ न्तुक हमारे दुःखा ९-एक वेश्या थी, उसके पास सौन्दर्य को सुनकर मनाम बतलाये, दया करे, प्रेम था, जवानी थी, वैभव था, बीसा युवकों को इशारे करे और फिर उनका यह पुराण तबतक बन्द पर नचा चुकी थी। पर दिल को शान्ति न न होता जबतक आनेवाला जरूरी काम का थी। वई दुनिया का शिकार करती थी, दुनिया बहाना बताकर चला न जाय । आदमी नकली उसका शिकार करती थी। उसने अपना धंधा सहानुभूति में जल्दी थक जाता है और असली छोड़ दिया और रास्तों में यात्रियों के लिये धर्म- सहानभति इतनी अधिक नहीं होती कि इस शालाएँ और कुंए बनवाने शुरू किये, वेश्यावत्ति प्रकार फालतु बहायी जाय इसलिये लोग उनसे छोड़कर सादगी से जीवन बितानेवाली स्त्रियों को किनारा काटने लगे । दुःख सुननेकाटा न मिलने खानपान का प्रबन्ध किया । गरीबों को तो मदद से उनका दुःख और बढ़गया। करती ही थी पर मध्यम परिस्थिति के उन हसन्तजी इनसे बिलकुल उल्टे थे । कहते कुलीन कुटुम्बों को भी चुपचाप मदद करती थी दुनिया में सुखदुःख दोनों हैं और सभी को है, जो माँग नहीं सकते थे। उसका नाम घर घर तब किस को अपना दुःख सुनाया जाय । हम फैल गया । उसका जीवन जो डामर से रंगे हुए से भी ज्यादा दुःखी लाखों पड़े हैं हम उनके के समान काला था उस पर पक्के सफेदा से लिये तो रोते नहीं अपने लिये क्यों रोय ! खुदा
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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