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________________ २७५ ] यह भ्रम काम में भी आधा हिस्सा बटाना पड़ता, फिर भी बहू रहता कि मुझे नौकर समझा जाता है । ही मन है यह उसकी परिभाषा थी । आखिर घरमें चैन से न रह सकी, न किसी को रख सकी, पति को भी उसने ऐसा ही सिखाया कि वह समझे कि मेरी पत्नी का घोर अपमान किया जाता है, वह समाचारों को ऐसा ही रंगती थी। पति भी कलाहीन था | आखिर बहू मा के घर चली गई पति को बुला लिया | सासससुर अपनी संपत्ति कुछ दूसरों को देकर कुछ साथ लेकर सदाके लिये तीर्थयात्रा को चले गये। पीछे बहू को गरीबी, कलह अपमान आदि हुन सहना पड़े, पर फिर समपुर न मिले, जीवन नरक हो गया, जीवन का ही नहीं कुटुम्ब का चित्र बिगड़ गया। सत्यामृत ७-एक कथा एक सद्गृहस्थ ने उसे पाललिया था । वह बड़ा ही ईमानदार, बड़ा ही कर्मठ, बड़ा ही विनीत था जो काम कहदो अवश्य पूरा करे | बिना दिये एक कौड़ी भी न ले, थोड़ीसी भूल हो जाय तो बिना पूछे ही कहने और पश्चात्ताप में आंसू बहाया करे, जो भी जरूरी काम हो उसके करने में शर्म नहीं । जब उन सद्गृहस्थ के यहाँ कोई अरिचिन व्यक्ति आये तो वह समझे वह इन का पुत्र है पर जब उससे पूछा जाय तो कहढे में तो अनाथ बालक हूं मालिकने मुझे दया करके पाला मालिक से बाप की तरह प्रेम करता था, उन्हें र समान समझकर डरता था देवदेवी समान समझकर अपराध स्वीकार करता र उन्हें मालिक समझकर दास के समान कोई भी सेवा करने को तैयार रहता था, 1 3 " विद्यार्थी की तरह हर एक बात सीखने को तैयार रहता था । फल यह हुआ कि उसे जरूरत से ज्यादा बिना ही मांगे मिलता था । दुर्भाग्यवश में उसके मालिक मालकिन का देहान्त हो गा वह किसी तरह बचगया | सामने चिन्ता थी कि अब वह कहाँ जाय ? कैसे कमाये खाये ? मालिक के रिश्तेदार लोग सम्पत्ति पर कब् करके उसे हटाना चाहते थे। इतने में एक कल आया, उसने रिश्तेदारों को मृतदम्पति का बताया । सब सम्पात्त उसी अनाथ बालक के नाम थी । कलाकार ने अपनी कला का भरपूर इनाम पाया था । ८ - एक श्रीमान् दम्पति उतरती उम्र में अपने दो मुनीमा के भरोसे अपना सारा कारवार छोड़कर की यात्रा करने गये। दोनों मुनीम काम सँभालने लगे। कुछ दिन बाद एक आदमी सेट की चिट्ठी लेकर आया । चिट्ठी क्या थी मरने के पहिले की कुछ आज्ञाएं थीं । पत्र हरिद्वार से लिखा गया था वहां की एक शिक्षण संस्था के नाम साठी जायदाद कर दी गई थी। यह भी हुक्म था कि दोनों मुनीम अगर ईमानदारी से काम करना चाहें तो स्थावर संपत्ति समालने के लिये काम करते रहें और आमदनी उस संस्था को देते जावें परन्तु जंगम जायदाद तो सबकी सब लेकर हरिद्वार की उस संस्था के कुलपति के सामने उपस्थित हो । एक मुनीम को मालिक की मृत्यु का शोक हुआ और वह मलिक की आज्ञा के अनुसार हरिद्वार ले जाने के लिये सम्पत्ति इकट्ठी करने लगा। दूसरे ने कहा- कैसे मूर्ख हो, मालिक मर गया अब कौन अपना क्या कर सकता है ? चलो अपन दोनों यह सपाट लें । पहिले मुनीम
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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