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________________ अक्रोध [ २७२ बढ़ायगा दूसरों की भी बढ़ायगा । छल का लाभ उसका परीक्षण ही, इनके बिना मनसाधना एक निकल जायगा परेशानी की निष्फल तपस्या तरह की जड़ता ही हो जायगी । जड़ता का जीवनभर को चिपक जायगी। भगवती के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ___ झूठ चोरी व्यभिचार आदि नाना पाो का जीवनसाधना का अर्थ यह है कि जीवनमुल छल है । इससे सर्वदा भय, लज्जा आदि कला का विचार करके जीवन को ऐसा अच्छा दुःखात्मक भावों का अनुभव करना पड़ता है, बनाया जाय कि वह पवित्र, सुखद, महान् और अपमान घृणा अविश्वास आदि के पात्र बनकर जगहितकारी बन सके । जीवन को मैंने एक कला अनेक भौतिक और आध्यात्मिक लाभों से बञ्चित कहा है, कला को लक्षण या चिह्नों के चौखटे में रहना पड़ता है । वर्तमान के थोड़े से स्टाभ के पीछे बिठलाना काफ़ी कठिन है उसे तो अनुभव से ही भविष्य और निकट भविष्य के बड़े से बड़े लाभ समझा जा सकता है । किसी सुन्दरी के सौन्दर्य से हाथ धोना पड़ता है। का मा५ लगाने के लिये हम ढेरों उपमाएं दें और ___ यहाँ यह न भूलजाना चाहिये कि गाम्भीर्य मापतौल के साथ उन्हें सजाकर रक्खें तो सुन्दऔर छल में जमीन आसमान का अन्तर है। रता दिखाई न देगी कुछ कुछ इसी प्रकार जीवन गाम्भीर्य सहिष्णुता का परिणाम है उससे रक्षण के विषय में भी कहा जा सकता है। चतुर चित्रऔर वर्धन किया जाता है जब कि छल से भक्षण कार जैसे दस पांच आडीटेढ़ी रेखाएं खींचकर और तक्षण किया जाता है। भी अच्छा चित्र बना लेता है किन्तु अनाड़ी मनुष्य जितना अधिक अकषायी बनेगा आदमी बोतलों से स्याही खर्च करके भी कागज़ भगवती की उतनी ही अधिक साधना करेगा या दीवार बिगाड़ने के सिवाय कुछ नहीं कर इससे वह अकर्मण्य न बनेगा किन्तु उसके कर्म पाता इसी प्रकार जीवन भी है। जीवन की शक्ति आत्म-शान्ति और जगत्कल्याण के लिये उपयोगी बराबर रहने पर भी और उसका दिनरात उपहो जावेगे। योग करने पर भी एक का जीवन स्वपर-कल्याण जीवन-साधना कारी बनता है जब कि दूसरे का जीवन स्वपरभगवती की मनसाधना और लोकमाधना भी अक्ल्याणकारी दुःखमय और असफल बनता है। एक तरह की जीवनसाधना है क्यों के जीवन में इसी से जीवन एक कला है । यद्यपि कला के इनका भी समावेश होता है। फिर भी साधना भी कुछ नियम रहते हैं और उससे कला को के अनेक पहलू सरलता से दिखाये जा सकें समझने में काफी सुमीता होता है फिर भी कला इसलिये उसके तीन भाग कर दिये गये हैं। पर के नमने ही कला को पूरी तरह समझाते हैं यही उन साधनाओं को एक दूसरे से अलग रखना बात ‘जीवन के विषय में भी कही जा सकती असम्भव है। मनसाधना के बिना जीवनसाधना है। जीवन के कुछ अच्छे बुरे नमूने देख लेने या लोकसाधना नहीं हो सकती और जीवन- से पता लग जाता है कि कलामय जीवन कैसा साधना और लोकसाधना के बिना मनसाधना होता है और उसकी साधना किस तरह करना का न तो विवेचन ही किया जा सकता है न चाहिये। यहां कछ नमना का उल्लेख किया जाता है।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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