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________________ २७३ ] १ - राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि महात्माओं के जीवन इस बात के प्रमाण हैं कि किस प्रकार का निःस्वार्थ और लोक हितकारी जीवन बिताने से मनुष्य स्वपर कल्याण करके भगवती अहिंसा की साधना करता है । अगर ये लोग अपने ऐहिक स्वार्थे के लिये जीवन खपा देते तो ये न तो महान् बन पाते न सुखी हो पाते, न जगत्कल्याण कर पाते । संत्यामृत २- म. राम का विरोधी रावण, म. महावीर का शिष्य जमालि, म. बुद्ध का शिष्य देवदच, पांडवों को छलने वाला और श्रीकृष्ण को क़ैद करने की नियत रखने वाला दुर्योधन इत्यादि लोग इस बात के प्रमाण हैं कि भोग, यश, पद, वैभव आदि की लूट मचाने की इच्छा से अन्त में मनुष्य का जीवन नाना कष्ट सह कर भी बुरी तरह नष्ट हो जाता है । स्वर, प्राचीन काल के इन बड़े बड़े आद मियों के उदाहरण छोड़िये पर हम दिन रात अपने और दूसरों के जीवन में जो कलाहीनता देखते हैं, मोह प्रमाद छ अहंकार आदि के कारण जो अपने जीवन को दुःखस्य तथा दूसरों के जीवन को अशान्त बनाते हैं अपनी महत्ता का नाश करते हैं उससे चीन के विषय में हम कितने अनाड़ी हैं इस बात का पता लग जाता है। विधवा को कौड़ी कौड़ी के लिये तरगाया, उसकी सम्पत्ति छीनली, सुधार का समय आया तो ऐसे छिपे कि लोग ढूँढ ढूँढ़ कर हैरान हो गये पर न मिले | दान के एक लाख रुपयों में से एक रुपया भी न निकाल सके। तब लोग उनके पास फटकते न थे । रास्ते में से जाते हुए मुझे उनने एक बार बुलाया, सिर्फ पांच मिनिट के लिये, पर मुझे इतनी हिम्मत न हुई कि उस धनी बुजुर्ग जीवको पाँच मिनिट का भी दान कर सकूँ । वह बीमार था इसलिये पैसे का कुछ भोग भी न कर पाया, पंडिताई की बातें करके और एक धनी होकर भी वह भिखारी बराबर भी इज्जत न कमा पाया, मोह छल आर भय से उसने अपना जीवनचित्र बुरी तरह बिगड़ लिया इसकी अपेक्षा वह उतना ही बकता जिस पर वह छड़ रह सकता था, दान की झूठी घोषणा न करता, दिल में कमज़ोरी थी तो अपनी कमज़ोरी स्वीकार करके कहता कि यथाशक्ति ही कर सकूंगा तो चित्र न बिगड़ता । २-- एक बाई थी, बड़ी कर्मठ, पर उस में दो दोष थे एक तो यह कि किसी का थोड़ा सा भी काम करके वह बार-बार कब से कहती थी, दूसरा यह कि अपने से ज्यादा सुखी व किसी को देख न सकती थी यहां तक कि कोई पति अपनी पत्नी से प्रेम करे, बीमारी में सेवा करें तो भी उसे बुरा लगता था, निन्दा करती थी इसके कारण खूब काम करने पर भी अन्तमें कटु वचन ओर गालियाँ ही पाती, यहाँ दुर्दशा थी कि उसक माँ बाप भी उसे सह न सकते थे। बहुत कुछ करके भी वह किसी के लिये भी न बन पाई, न सुफी हो पाई। जनता का न १- एक श्रीमान् माई थे, दिनरात समाजकरते थे, नरनारी समभ व पर किया करते थे एक बार एक लाख रुपये के दान की भी कर चुके थे, सामाजिक क्रान्ति के दिये लोगों को उनाड़ा करते थे, क्रान्तिकं विरोधियों थे पर अवसर आया तो उनने एक रिश्तेदार कैसा अज्ञान ! नेपाली
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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