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________________ २७१ ] सत्यामृत कोई कोई बातें, जिन का दूसरों से कोई करते समय पास पास ही तो रहते हैं पर उन सम्बन्ध नहीं है उनका छिपाना भी छल नहीं है। की नजदीकी सिर्फ दाव पेंच अजमाने के लिये मैंने एकान्त में पत्नी के साथ किस प्रकार प्रेम- ही होती है । इसलिये दूर दूर देशों में बैठे हुए दो प्रदर्शन किया आदि व्यक्तिगत जीवन में ही पूरी निश्छल मित्रों की अपेक्षा उन की दूरी असंख्य गुणी हो जानेवाली बातों को प्रगट न करना हल नहीं है। होती है । इन सब क्षम्य अपवादों के रहने पर भी जीवन में छल से मनुष्य दूसरों का नुकसान तो करता छल का उपयोग बहुत किया जाता है । जिससे ही है किन्तु उससे अधिक वह अपना नुकसान हम छल करते हैं उससे कुछ पाने की आशा करता है । रोगी अगर वैद्य के सामने छल करे हमें न रखना चाहिये । मनुष्य इस विषय में तो वैद्य को चिकित्सा करने में कठिनाई तो होगी काफ़ी मूर्ख है । प्रायः हर एक आदमी यह सोचता ही इससे उसे कष्ट भी होगा पर उससे अधिक है कि मैं तो दूसरों की चालबाजियां समझ जाता कष्ट रोगी को होगा । वह अपनी ही बीमारी हूँ पर मेरी कोई नहीं समझ पाता । अगर हम बढ़ायगा और जीवन नष्ट करेगा। इस मूर्खता का त्याग करदें तो आधे से अधिक एक विद्यार्थी पाटक से अपना अज्ञान छल तो हमें निरर्थकता के कारण लग देना पड़े। छिपाता है, नकल करके पास हो जाता है, परिणाम पहिले निरभिमानता के प्रकरण में कुटिल आत्म- यह होता है कि वही ज्ञान से वञ्चित रहता है, प्रशंसा के उदाहरण दिये गये है, अत्मप्रशंसा पढने में कमजोर रहता है। आगे किसी न किसी के कारण वे अभिमान के प्रकरण में लाये गये परीक्षा में अड़कर रहजाता है । पाठक की इस और कुटिलता के कारण वे छल के प्रकरण में भी में क्या हानि है, छली विद्यार्थी की ही हानि है। लाये जा सकते हैं। उन से मालूम होता है कि एक साधक अपने गुरु या आचार्य से अधिकांश हट गुनाह बेलज्जत हैं, बिना स्वाद के , अपने मन के पापछिता है, समझाने जाओ है। टोग आज किसी बात को न समझेगे तो विनय-अविनय का विचार न करके अपने परन्तु छल की सफलता के समय तो समझ जायेंगे। को निष्पाप सिद्ध करने के लिये गर्जन तर्जन कि तुम्हारा क्या बिचार था । परिणाम यह होगा और वाद-विवाद करता है, समझता है कि शब्दों का कि तुम्हारे निश्छल कार्य में भी लोग छल समझेगे। ___आवरण डाल देने से पाप छिप जायगा पर शब्दों इस प्रकार छल तो निरर्थक जायगा ही पर और से किसी का मुंह बन्द किया जा सकता है मन पुण्य भी निरर्थक जायगा। नहीं और मुँह बन्द कर देनेसे उसका ही जिसके साथ नुमछल करते है। उसके साथ नुकसान होगा। क्योकि वह आचार्य से जो कुछ तुम्हारी कैसी भी घनिष्ठ मित्रता क्यों न हो, पासकता था अब न पासकेगा। हल दिलों को शिष्टाचार के द्वारा नुम कितना ही प्रेम प्रदर्शित तोड़ देग, दिलों के मिलानेवाले समस्त शिष्टाचार करते रहो न हारे अद्वैत के टुकड़े व्यर्थ जायेंगे। टुकड़े कर दंगा, तुम पास पास भले ही रहो पर एक दूकानदार ग्राहकों को छलता है, एक जीवन-चर्या कदाट जागभी। दो पहिलवान कुश्ती दो बार सफल होगा बाद में वह अपनी परेशानी
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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