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________________ ..... अक्रोध [ २६८ व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी होगी इसलिये आज्ञा पालन करना भी न्याय है, स्वार्थ नहीं। इन प्रकार के विशेष को बात दूसरी है पर साधारणतः अपान कराने की ओट में स्वार्थपरता आदि का प्रवेश न हो जाय इस का ध्यान रखना चाहिये | में न्याय की मुख्यता रहती है कपाय में स्वार्थ की । ३ - चिकित्सा में प्रतीकार की मर्यादा का विचार रहता है कषाय में मर्यादा लुप्त हो जाती है | ४ - चिकित्सा में शिष्टाचार का विचार बना रहता है कषाय में शिटाचार का विचार नष्ट हो जाता है । इन चारों बातों को कुछ सफाई के साथ समझना ठीक होगा । १- एक आदमी अपथ्य - Har करता है इसलिये हम उस पर नाराज होते हैं या प्रमाद आदि के कारण ही अपनी सन्तान अदि पर नाराजी प्रगट करते हैं तो इस में तक्षण नहीं है रक्षण और वर्धन है । अथवा न्यायाधी किसी को दंड देता है तो इस में भी रक्षण हैं। चिदंडनीय व्यक्ति का न हो पर जनता का रक्षण है इसलिये इसे रक्षण ही महंगे व्यवहार पंचक का विवेचन इस अध्याय के प्रारम्भ में किया गया है उसके अनुसार विश्वहितकारी वीन जहाँ हो वहाँ कराय के बदले चिकित्सा की ही अधिक सम्भावना है। २ कभी कभी रक्षण और वर्धन के कार्य में भी मनुष्य चिकित्सक की अपेक्षा पायी बन जाता है। जैसे किसी को सुधारने की अपेक्षा आज्ञा चलाने की लालसा तीव्र हो तो इस स्वार्थप्रधानता के कारण रक्षण व गौण हो जायेंगे इसलिये वहां विधि-वृत्ति न होगी कर होगी। हां, अगर सुव्यवस्था के लिये अज्ञापालन करान भी कर्तव्य में दारू हो तो बात दूसरी है । जैसे एक ना एक सैनिक को आज्ञा दी पर सैनिक कुछ उदंड या लापर्वाह है इसलिये उसने आज्ञा की उपेक्षा की, सेनाध्यक्ष जानता है कि अगर वह यह आज्ञा न भी पाले तो भी कोई काम अड़ न जायगा पर इससे अज्ञा की उपेक्षा करने की जो आदत पड़ जायगी उसमे ३ कभी कभी न्याय के नाम पर मनुष्य बहुत कड़ाई कर जाता है प्रतीकार की मर्यादा भूल जाता है ऐसी अवस्था में वहां काय का आवेग ही समझना चाहिये। यह हो सकता है कि कहीं प्रतीकार काम न इसके तो कठोर और अधिक प्रतीकार भी उचित ही समझा जायगा । जैसे मानो कि कहीं के लोग ऐसे जगली है कि नारियों पर वार करने में नहीं चूकते साधारण सज़ा का उन पर प्रभाव नहीं पड़ता तो जब तक उस जनि लोग जन्म से सुसंस्कृत नहीं बनाये जाते तबतक कारियों को अधिक से अधिक दंड भीप्राणदं समझा जायगा | मतलब यह है कि प्रतीकार में जनहित की दृष्टि से पात्रापात्र का विचार करते हुए कार्य करना चाहिये । स ४ मर्यादित प्रतीकार में शिष्टाचार का भी विचार रखना चाहिये। एक आदमी प्रतीकार के नाम पर माँ बाप को भी गालियाँ देने लगता है तो समझना चाहिये कि उसमें चिकित्सा नहीं है कपाय है। अगर ये जाने सर्प के कारण हो, माता पिता की उचित शासकता के विरुद्ध हो तब तो क्रोध अक्षम्य ही समझना चाहिये पर मांबाप की लेने पर भी गालियाँ बककर या और किसी तरह से शिष्टाचार का मंग किया जाय तो यह क्रोध की तीव्रता ही समझना चाहिये ।
SR No.010818
Book TitleSatyamrut Achar Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size82 MB
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